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Thursday, March 13, 2008

जियो तो ऐसे जियो

छोटे गाँवों के छात्रों के लिए मिसाल है अजय पांडे

कहते है लहरों के डर से नौका पार नही होती, मेहनत करने वालों की कभी हार नही होती, जी हाँ आज की इस दुनिया मे भी यही मूल मंत्र काम करता है। उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव गौंडा के सरकारी स्कूल से अपनी पढ़ाई करने वाले मध्यमवर्गीय नौकरीपेशा माता-पिता के एक होनहार बेटे अजय पांडेय ने गौंडा से अमरीका तक की अपनी यात्रा में इस बात को सिद्ध कर दिखाया है। अजय पांडेय की
सफलता की कहानी देश के छोटे-छोटे गाँवों में रहने वाले उन युवाओं को जरुर प्रेरणा देगी जो अभावों में, असफलता के साये में और पर्याप्त मार्गदर्शन न मिलने के कारण तमाम योग्यता होने के वावजूद अपने कैरियर को एक ऊंचाई देने में सफल नहीं हो पाते हैं। अजय पांडेय का जन्म उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर गोंडा मे हुआ। इनकी माँ विद्यावती पांडेय सरकारी स्कूल मे हिन्दी की शिक्षिका थी और पिता बैंक मे मैनेजर थे। ये दोनों अब सेवानिवृत हो चुके है । अजय की प्रांरभिक शिक्षा गाँव के ही एक सरकारी स्कूल में हुई। अजय शुरु से ही एक मेधावी छात्र थे। अजय ने विज्ञान विषय के साथ अपनी स्कूली पढ़ाई की शुरुआत की। उनके माता-पिता उनको विज्ञान की बजाय कला संकाय में पढ़ाई करवाना चाहते थे क्योंकि वे दोनों ही आर्ट्स के विद्यार्थी थे और तब गाँव में विज्ञान की पढ़ाई के लिए योग्य शिक्षक तक नहीं थे। लेकिन इसके बावजूद अजय ने जिद करके विज्ञान विषय लिया और अपना पूरा समय पढ़ाई के लिये देने लगे। अजय ने हाई स्कूल और इंटर की पढ़ाई फैजाबाद मे की। इन्होने कभी भी किसी अंग्रेजी माध्यम के प्राइवेट सकूल मे पढ़ाई नही की। दोनों ही परीक्षाएं में अजय ने उच्चत्तम अंकों से पास की और इनका नाम मेरिट लिस्ट मे भी आया। अजय अपनी मेहनत और लगन से आगे बढ़ते गए और बगैर किसी कोचिंग या सुविधा के आई आई टी प्रवेश जैसी कठिन परीक्षा पास की और इनको आईआईटी खड़गपुर मे प्रवेश मिला। इंटर के बाद अजय इंजीनियरिंग की पढ़ाई करना चाहते थे। उन्होंने आईआई टी रुड़की और एम एन आर तीनों इम्तिहान दिए पर उनका चुनाव केवल रुड़की और एम एन आर मे ही हुआ अजय को बहुत दुःख हुआ वो रुड़की नहीं जाना नही चाहते थे मगर माता-पिता की समझाईश पर रुड़की चले गए। लेकिन ३ महीने ही बीते थे कि अजय सब छोड़ के वापस घर आ गए, माँ तो अवाक् रह गई। उस दिन माँ पहली बार अजय पर गुस्सा भी हुई। अजय का कहना था कि मै जैसे भी हो मेहनत करते आई आई टी में ही उस दिन अजय ने जैसे तैसे अपने निराश, हताश और दुःखी माँ-बाप को समझाया कि वह हर हाल में आईआईटी की परीक्षा पास करेगा और अईआईटी में ही इंजीनियरिंग करेगा। फ़िर अजय ने आईआईटी की प्रवेश परीक्षा दी। जिस दिन परिणाम आना था उस दिन सुबह से ही बारिश हो रही थी।
जब अजय को पता चला की अखबार में रिजल्ट आगया है तो अजय ने बारिश की परवाह नहीं की और भारता हुए वो अखबार वाले के पास गया (क्योंकि तब अखबार की दुकान पर जाकर ही अखबार लाना पड़ता था और कभी कभी तो दुकानदार के पास भी अखबर की एक या दो प्रतियाँ ही होती थी)। इधर घर पर सभी बेसब्री से अजय का इंतजार कर रहे थे। अजय बुरी तरह से पानी में भीगता हुआ आया और चुपचाप अपने कमरे में चला गया। उसकी इस हरकत से घर के सभी लोगों के चेहरे उतर गए और वे भी उसके पीछे पीछे उसके कमरे मे गए, वहाँ देखा कि अजय ने अपना रोल नंबर कार्ड निकला और आपना रोल नम्बर देखा। इसके बाद एकदम उछलकर कहा कि मैं पास हो गया। जब घर वालों ने कहा कि यह बात तो तुम घर आकर ही बता सकते थे तो अजय ने कहा कि मै तो खुशी। डर और फैल होने की आशंका में अपना नम्बर ही भूल गया था। घर आकर यह पक्का कर लेन चाहता था कि नंबर सही है कि नहीं। आई आई टी में इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान ही तीसरे साल मे ही अजय को सेल रांची मे नौकरी मिल गई । वहाँ पर उनकी ईमानदारी के खूब चर्चे रहे। इसका कारण था- जब भी सेल का कोई अधिकारी या कर्मचारी से किसी काम से कहीं बाहर जाता था तो उसको खर्चे के पैसे दिए जाते थे। वापस आने पर वो व्यक्ति आपना बिल जमा करता था तो उसे जितने पैसे दिए जाते थे उनके पूरे के खर्चे का विल भी जमा कर देता था। दूसरि ओर अजय एक ऐसा व्यक्ति था जो दिए गए पैसे की अथिकांश रकम बगैर खर्च किए वापस लाकर देता था। उनकी इस आदत पर उनके इन के बॉस भी हैरान होते थे। पूछे जाने पर अजय यही कहते मै न तो शराब पीता हूँ और न नानवेज खाता हूँ और अगर बाहर जाता हूँ तो कम से कम खर्च करके अपना काम करने की कोशिश करता हूँ, इसीलिए पैसे बच जाते है। इसके बाद अजय को प्राइज वाटर हाउस कूपर मुम्बई मे नौकरी मिली। यहाँ कुछ सालों तक काम करने के बाद उन्होंने आईआईटी मुम्बई से एमबीए किया। इसी दौरान उन्हें अमेरिका की इव्र्ज कम्पनी से नौकरी का प्रस्ताव मिला और अजय ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। अजय के पूरे खानदान मे कोई कभी पहले अमेरिका नही आया था। उनके अमरीका जाने की बात को लेक माता-पिता खुश तो थे मगर अकेले बेटे को दूर भेजने से डर रहे थे, लेकिन उसके भविष्य को संवारने के लिए उन्होंने दिल पर पत्थर रखकर हाँ कर दी।
अजय ने अमरीका में अपने कैरियर की शुरुआत बोस्टन से की और आज वे डैलास की एक बड़ी कंपनी सॉफ्टवेयर कंसल्टेंट के रूप में काम कर रहे हैं। अपनी मेहनत, लगन और ईमानदारी की वजह से अजय अपने सहयोगियों के साथ ही अपने से वरिष्ठ अधिकारियों के चहेते बने हुए हैं। अजय की शादी मुम्बई की प्रीति से हुई है। अजय और प्रीति अपने बेटे सस्मित के साथ अमरीका में एक सुखी जीवन जी रहे हैं। अजय के बचपन से तीन खास दोस्त हैं अविनाश ,मनीष ,विकास इनकी बचपन की दोस्ती अभी बड़े होने तक भी कायम है। अविनाश अमेरिका मे हैं एक यूनिवर्सिटी में रिसर्चर हैं। मनीष लखनऊ मे वैज्ञानिक के पद पर हैं। वे अपने शोध कार्य के सिलसिले में जो अमेरिका भी आचुके हैं। विकास फैजाबाद मे अपना कारोबार चला रहे हैं। अमरीका में रहते हुए भी वे पने माँ पापा का बहुत धयान रखते है लगभग रोज ही फ़ोन करते है और हर साल भारत जाते है उनसे मिलने को और कभी उनको अमरीका भी बुला लेते है। यहाँ रहते हुए भी वे घर की हर छोटी बड़ी बातों का धयान रखते है। वो आपनी सफलता का श्रेय आपने माता-पिता और गुरूजनों को देते हैं। आपने कुछ शिक्षकों को वो हमेशा याद करते हैं । तिवारीजी, जो उनको फिजिक पढ़ते थे और अहमद अली सर जो केमिस्ट्री पढाते थे और प्रदीप मास्टर जी, .मंदाकनी मजुमदार जो इंजीनियरिंग मे पढाती थी, को अजय बहुत याद करते हैं। खाली समय मे ये आपना समय आपने परिवार के साथ बिताना पसंद करते हैं हिन्दी फ़िल्में कार्टून (टॉम एंड जेरी)देखना भी बहुत पसंद है। जगजीतसिंह की गजलें भी ये चाव से सुनते हैं।***(हमें यह पूरा आलेख अमरीका से अजय के एक मित्र ने भेजा है, वे नहीं चाहते थे कि अजय पांडे को इस बात का पता चले कि यह लेख किसने लिखा है। इस लेख को भेजने का उनका मकसद यही है कि हिन्दी प्रदेशों के छात्र अजय से प्रेरणा लेकर अपने कैरियर की ऊँचाई खुद तय कर सकते हैं।)

(ये लेख श्री आदित्य प्रकाश सिंह के सौजन्य से http://www.hindimidia.in/ से लिए गए हैं । )

Monday, August 27, 2007

चिन्तन

१-हमे जो मिला है;
हमारे भाग्य से ज्यादा मिला है
यदि आप के पाँव में जूते नही है;
तो अफसोस मत कीजिये
दुनिया में कई लोगोँ के पास
तो पाँव ही नहीं है।

२-चापलूस चोर होता है। वह बेवकूफ बना कर
तुम्हारा समय भी चुराता है और बुद्धि भी
- चाणक्य
3-जो लोगों की छोटी- छोटी गल्तियों को भुला नहीं
सकता वह दरिद्र आत्मा है।

4-माचिस की तीली का
सिर होता है,
पर दिमाग नहीँ,
इसलिये वह थोड़े घर्षण से
जल उठती है
हमारे पास सिर भी है और दिमाग भी।
फिर भी हम छोटी- सी बात पर
उत्तेजित क्यों हो जाते हैं।
5-मान सदा औरों को देने के लिये होता है;
औरों से लेने के लिये नहीं ।

विचार

1-ग़लती कर देना
मामूली बात है
पर उसे स्वीकार कर लेना
बड़ी बात है।
२-जो दुःख आने से पहले ही
दुःख मानता है;
वह आवश्यकता से ज्यादा
दुःख उठाता है।
३-आप के पास किसी की
निंदा करने वाला,
किसी के पास तुम्हारी
निंदा करने वाला होगा।
४-शर्म की अमीरी से
इज्जत की गरीबी
अच्छी है।

Sunday, June 3, 2007

Easy Vs Difficult


EASY
DIFFICULT


Easy is to judge the mistakes of others
Difficult is to recognize our own mistakes

Easy is to talk without thinking
Difficult is to refrain the tongue

Easy is to hurt someone who loves us.
Difficult is to heal the wound...

Easy is to forgive others
Difficult is to ask for forgiveness

Easy is to set rules.
Difficult is to follow them...

Easy is to dream every night.
Difficult is to fight for a dream...

Easy is to show victory.
Difficult is to assume defeat with dignity...

Easy is to admire a full moon.
Difficult to see the other side...

Easy is to stumble with a stone.
Difficult is to get up...

Easy is to enjoy life every day.
Difficult to give its real value...

Easy is to promise something to someone.
Difficult is to fulfill that promise...

Easy is to say we love.
Difficult is to show it every day...

Easy is to criticize others.
Difficult is to improve oneself...

Easy is to make mistakes.
Difficult is to learn from them...

Easy is to weep for a lost love.
Difficult is to take care of it so not to lose it.

Easy is to think about improving.
Difficult is to stop thinking it and put it into action...

Easy is to think bad of others
Difficult is to give them the benefit of the doubt...

Easy is to receive
Difficult is to give

Easy to read this
Difficult to follow

Easy is keep the friendship with words
Difficult is to keep it with meanings
..................................
Presented by(AASICS)

Thursday, May 17, 2007

चिन्तन

स्कूल

-सुरेश अवस्थी

उसकी अवस्था पाँच वर्ष से अधिक नहीं थी ।इससे पहले जब वह शैतानी करता था ,घर के सभी लोग हँस देते थे ।वह और शैतानी करता ,लोग और हँसते ।
वह भी खुश हो जाता ;पर उसकी वही बातें अब किसी को भी अच्छी नहीं लगतीं ।उन्हीं बातों पर घर के सभी बड़े लोग उसे डाँटते और बात –बात परा स्कूल में भरती करवा देने की धमकी देते ।
उसका नन्हा कोमल मन सोच-सोचकर थक जाता कि अब ऐसा क्यों होता है ?हर बात पर उसे स्कूल में भरती कराने की धमकी क्यों दी जाती है ?
उससे फूलदान टूट गया माँ ने डाँटा , “तू बहुत शैतान हो गया है…तेरे पापा से बोलूँगी तुझे कल ही स्कूल में भर्ती करा देंगे ।”
वह देर तक सोकर उठा , पापा ने डाँटा –“दीपू , तू बहुत आलसी हो गया है,चल तुझे स्कूल में भर्ती करा देते हैं।”वह उसने गमले से फूल तोड़ लिया । आंटी ने डाँटा ,गन्दी आदते सीख रहा है ; तेरी मम्मी से कहूँगी –तुझे जल्दी स्कूल में भर्ती करा दें।”
क्या होता है स्कूल ?उसका नन्हा मन सोचता ,उसे लगता स्कूल वह स्थान है ;जहाँ गमला तोड़ने ,फूल तोड़ने जरा-से बोलने ,देर से सोकर उठने की आदि सभी बातों की सज़ा मिलती है ।
आखिर एक दिन उसे स्कूल जाना ही पड़ा ।उसने ्स्कूल में प्रवेश करते ही कान पकड़े ।उठक –बैठक लगाते हमउम्र बच्चों को देखा ।वह सहमा-सहमा रहा और जब उसके पापा उसे छोड़कर चले गए वह चुपके – से भाग खड़ा हुआ ,अकेले ।
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Saturday, April 28, 2007

सुविचार

THINK ABOUT IT !

PARADOX OF OUR TIMES

We’ve taller buildings, but shorter tempers;
Wider freeways, but narrower viewpoints;
We spend more, but have less;
We buy more, but enjoy less;
We’ve bigger houses, but smaller families;
More conveniences, but less time;
We have more degrees, but less sense;
More knowledge, but less judgment;
More experts, but less solutions;
More medicines, but less wellness;
We have multiplied our possessions, but reduced our values;
We talk too much, love seldom, and hate too;
  • We have learnt how to make a living, but not a life;
    We’ve added years to life, but not life to years;
    We’ve been all the way to the moon, and back,
    But have trouble crossing the street to meet the new neighbour;
    We have conquered outer space, but not inner space;
    We’ve higher incomes, but lower morals;
    These are the times of world peace, but domestic warfare;
    More leisure but less fun;
    More kinds of food, but less nutrition;
    These are days of two incomes, but more divorces;
    Of fancier houses, but broken homes;
    It is a time when there is much in the show windows;
    But nothing in the stock room;
    We are always getting ready to live, but never living.

    OM SAI RAM!
    Anju Sharma
    (Research Faculty)
    Sai International Centre for Human Values

Friday, April 6, 2007

संस्मरण

''हानूश'' का जन्मभीष्म साहनी

(भीष्म साहनी का नाटक हानूश)
''हानूश'' नाटक की प्रेरणा मुझे चेकोस्लोवेकिया की राजधानी प्राग से मिली। यूरोप की यात्रा करते हुए एक बार शीला और मैं प्राग पहुँचे। उन दिनों निर्मल वर्मा वहीं पर थे। होटल में सामान रखने के फौरन ही बाद मैं उनकी खोज में निकल पड़ा। उस हॉस्टल में जा पहुँचा जिसका पता पहले से मेरे पास था। कमरा तो मैंने ढूँढ़ निकाला, पर पता चला कि निर्मल वहाँ पर नहीं हैं। संभवतः वह इटली की यात्रा पर गए हुए थे। बड़ी निराशा हुई। पर अचानक दूसरे दिन वह पहुँच भी गए और फिर उनके साथ उन सभी विरल स्मारकों, गिरजा स्थलों को देखने का सुअवसर मिला, विशेषकर गॉथिक और 'बरोक' गिरजाघरों को जिनकी निर्मल को गहरी जानकारी थी।
और इसी धुमक्कड़ी में हमने हानूश की घड़ी देखी। यह मीनारी घड़ी प्राग की नगरपालिका पर सैंकड़ों वर्ष पहले लगाई गई थी, चेकोस्लोवेकिया में बनाई जानेवाली पहली मीनारी घड़ी मानी जाती थी। उसके साथ एक दंतकथा जुड़ी थी कि उसे बनानेवाला एक साधारण कुफ़लसाज था कि उसे घड़ी बनाने में सत्रह साल लग गए और जब वह बन कर तैयार हुई तो राजा ने उसे अंधा करवा दिया ताकि वह ऐसी कोई दूसरी घड़ी न बना सके। घड़ी को दिखाते हुए निर्मल ने इससे जुड़ी वह कथा भी सुनाई। सुनते ही मुझे लगा कि इस कथा में बड़े नाटकीय तत्व हैं, कि यह नाटक का रूप ले सकती है।
यूरोप की यात्रा के बाद मॉस्को लौटने पर मैं कुछ ही दिन बाद, चेकोस्लोवेकिया के इतावाद (मॉस्को स्थित) में जा पहुँचा। सांस्कृतिक मामलों के सचिव से, हानूश की दीवारी घड़ी की चर्चा और अनुरोध किया कि उसके संबंध में यदि कुछ सामग्री उपलब्ध हो सके तो मैं आभार मानूँगा। लगभग एक महीने बाद दूतावास से टेलीफ़ोन आया कि आकर मिलो। मैं भागता हुआ जो पहुँचा। अधिक सामग्री तो नहीं मिली पर किसी पत्रिका में प्रकाशित एक लेख ज़रूर मिला। मैं लेख की प्रति ले आया, पर लेख चेक भाषा में था।
सौभाग्यवश मेरे पत्रकार मित्र, मसऊद अली खान की पत्नी कात्या, चेकोस्लोवेकिया की रहने वाली थी। उन्होंने झट से उसका अंग्रेज़ी में अनुवाद कर डाला। मुझे नाटक लिखने के लिए आधार मिल गया और वह दो पन्नों का आधार ही मेरे पास था। जब मैं भारत लौटा वे 1963 के दिन थे। नाटक के लिखे जाने और खेले जाने में अभी बहुत वक्त था। और इसकी अपनी कहानी है। अंततः नाटक 1977 में खेला गया।
हानूश नाटक पर मैं लंबे अर्से तक काम करता रहा था। पहली बार जब नाटक की पांडुलिपि तैयार हुई तो मैं उसे लेकर मुंबई जा पहुँचा बलराज जी को दिखाने के लिए। उन्होंने पढ़ा और ढ़ेरों ठंडा पानी मेरे सिर पर उड़ेल दिया। ''नाटक लिखना तुम्हारे बस का नहीं है।'' उन्होंने ये शब्द कहे तो नहीं पर उनका अभिप्राय यही था। उनके चेहरे पर हमदर्दी का भाव भी यही कह रहा था।
पर मैं हतोत्साह नहीं हुआ। घर लौट आया। उसे कुछ दिन ताक पर रखा, पर फिर उठाकर उस पर काम करने लगा और कुछ अर्सा बाद नाटक की संशोधित पांडुलिपि लिए उनके पास फिर जा पहुँचा। उन्होंने पढ़ा और फिर सिर हिला दिया। उनका ढ़ाढस बँधाने का अंदाज़ भी कुछ ऐसा था कि यह काम तुम्हारे बस का नहीं है। इस पचड़े में से निकल आओ।
उनकी प्रतिक्रिया सुनते हुए मुझे संस्कृत की एक दृष्टांत-कथा याद हो आई जिसे बचपन में सुना था। एक गीदड़ अपने दोस्तों के सामने डींग हाँक रहा था कि शेर को मारने क्यों मुश्किल है। बस, आँखें लाल होनी चाहिए, मूँछ ऐंठी हुई और पूँछ तनी हुई, शेर आए तो एक ही झपट्टे में उसे चित कर दो। . . .वह कह ही रहा था कि उधर से शेर आ गया। बाकी गीदड़ तो इधर-उधर भाग गए पर यह गीदड़ शेर से दो-चार होने के लिए तैयारी करने लगा। वह मूँछें ऐंठ रहा था जब शेर पास आ पहुँचा और गीदड़ को एक झापड़ दिया कि गीदड़ लुढ़कता हुआ दूर तक जा गिरा. . .जब गीदड़ फिर से इकठ्ठा हुए तो गीदड़ अपनी सफ़ाई देते हुए बोला, ''और सब तो ठीक था पर मेरी आँखें ज़्यादा लाल नहीं हो पाई थीं, मूँछों में ज़्यादा ऐंठ भी नहीं आई थी।'' पास में खड़ा एक बूढ़ा गीदड़ भी सुन रहा था। गीदड़ को समझाते हुए बोला, ''शूरोऽसि कृत विद्योऽसि, दर्शनीयोऽसि पुत्रक,यस्मिन् कुले त्वमुत्पन्नः सिंहस्तत्र न हन्यते।''
'(बेटा, तुम बड़े शूरवीर हो, बड़े ज्ञानी हो, सभी दाँवपेंच जानते हो, पर जिस कुल में तुम पैदा हुए हो, उस में शेर नहीं मारे जाते।)मैं अपना-सा मुँह लेकर दिल्ली लौट आया।अब मैं बलराज जी की बात कैसे नहीं मानता। उनके निष्कर्ष के पीछे 'इप्टा' के मंच का वर्षों का अनुभव था, फिर फ़िल्मों का अनुभव।
मेरे अपने प्रयासों में भी त्रुटियाँ रही थीं। ''हानूश'' का कथानक तो मुझे बाँधता था, पर उसे नाटक में कैसे ढ़ालूँ, मेरे लिए कठिन हो रहा था। पहले भी बार-बार कुछ लिखता रहा था। फिर निराश होकर छोड़ देता रहा था। न छोड़े बनता था, न लिखते बनता था। ऐसा अनुभव शायद हर लेखक को होता है। एक बार कीड़ा दिमाग़ में घुस जाए तो निकाले नहीं निकलता। हर दूसरे महीने मैं उसे फिर से उठा लेता। कथानक के नाम पर मेरे पास गिने-चुने ही तथ्य थे। नाटक का सारा ताना-बाना मुझे बुनना था। कथानक की पृष्ठभूमि ऐतिहासिक थी और वह भी मध्ययुगीन यूरोप की चेकोस्लोवेकिया की। मेरे अपने देश की भी नहीं।
कुछ अरसा बाद नाटक की एक और संशोधित पांडुलिपि तैयार हुई। या यों कहूँ एक और पांडुलिपि तैयार हुई। अबकी बार मैं उसे बलराज जी के पास नहीं ले गया। नाटक की टंकित प्रति उठाए मैं सीधा अलकाजी साहिब के पास पहुँचा जो उन दिनों राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निर्देशक थे। मैंने बड़ी विनम्रता से अनुनय-विनय के साथ कहा, ''यदि आप इसे एक नज़र देख जाएँ। मैं आपकी प्रतिक्रिया जानना चाहता हूँ।''वह मुस्कराए। अलकाजी उन दिनों मुझे इतना भर जानते थे कि मैं बलराज का भाई हूँ। बलराज के साथ मुंबई में रहते हुए उनके साथ थोड़ा संपर्क रहा था।
उन्होंने नाटक की प्रति रख ली और मैं बड़ा हल्का-फुल्का महसूस करता हुआ लौट आया। अब कुछ तो पता चलेगा, मैंने मन ही मन कहा।उसके बाद सप्ताह भर तो मैं शांत रहा, उसके बाद मेरी उत्सुकता और मेरा इंतज़ार बढ़ने लगा। हर सुबह उठने पर यही सोचूँ, अब अलकाजी साहिब ने पढ़ लिया होगा, अब तक ज़रूर पढ़ लिया होगा, उन्हें टेलीफ़ोन कर के पूछूँ? नहीं, नहीं अभी नहीं मुझे जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए। मैं बड़ी बेसब्री से उनकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार कर रहा था। दो सप्ताह बीत गए, फिर तीन, फिर चार, महीना भर गुज़र गया। फिर डेढ़ महीना। मेरे मन में खीझ-सी उठने लगी। ऐसा भी क्या है, मुझे बता सकते थे, टेलीफ़ोन कर सकते थे। इस चुप्पी से क्या समझूँ?
जब दो महीने बीत गए तो मुझसे नहीं रहा गया। मैं एक दिन सीधा राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जा पहुँचा।मैंने अपने नाम की 'चिट' अंदर भेजी। चपरासी अंदर छोड़ कर बाहर निकल आया।
मैं बाहर बरामदे में खड़ा इंतज़ार करता रहा। कोई जवाब नहीं, मुझे इतना भी मालूम नहीं था कि अलकाजी साहिब दफ़तर में हैं भी या नहीं। वास्तव में वह दफ़तर में नहीं थे। वह उस समय क्लास ले रहे थे। हमारे यहाँ चपरासियों की बेरुखी भी समझ में आती हैं, वे यही मानकर चलते हैं कि साहिब के पास 'चिट' भेजनेवाला आदमी नौकरी माँगने आया है। उस समय मुझे इस बात का भी ध्यान नहीं आया कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में भी क्लासें लगती होंगी। मैं समझ बैठा था कि नाट्य विद्यालय में क्लासों का क्या काम, वहाँ केवल रिहर्सलें होती होंगी।
मैंने फिर से एक 'चिट' भेजी और चपरासी से ताक़ीद की कि यह बहुत ज़रूरी है, जहाँ भी अलकाजी साहिब हों उन्हें देकर आओ।मैं अपमानित-सा महसूस करने लगा था। अलकाजी साहिब की बेरुखी पर झुँझलाने लगा था। मैंने ऐसा कौन-सा गुनाह किया था कि मुझसे मिलने तक की उन्हें फ़ुर्सत नहीं थी।इतने में देखा, अलकाजी साहिब बरामदे में चले आ रहे थे। आँखों पर चश्मा, हाथ में खुली किताब।''मैं क्लास ले रहा था। आप थोड़ा इंतज़ार कर लेते।'' मुझे लगा रुखाई से बोल रहे हैं। वास्तव में उन्हें मेरा क्लास में 'चिट' भेजना नागवार गुज़रा था।''मैं अपने नाटक के बारे में पूछने आया था।''''वह मैं अभी पढ़ नहीं पाया। इस सेशन में काम बहुत रहता है।''
किताब अभी भी उनके हाथ में थी और वह थोड़ा उद्विग्न से चश्मों में से मेरी ओर देख रहे थे, मानो क्लास में लौटने की जल्दी में हों।तभी मैंने छूटते ही कहा!''क्या मैं अपना नाटक वापस ले सकता हूँ।''
वह ठिठके। मेरी ओर कुछ देर तक देखते रहे और फिर क्लास की ओर जाने के बजाय, अपने दफ़तर का दरवाज़ा खोल कर अंदर चले गए और कुछ ही देर बाद नाटक की प्रति उठाए चले आए और मेरे हाथ में देते हुए, बिना कुछ कहे, क्लास रूम की ओर घूम गए।
मैंने घर लौट कर नाटक को मेज़ पर पटक दिया। मारो गोली, यह काम सचमुच मेरे वश का नहीं है।दिन बीतने लगे। पर कुछ समय बाद फिर से मेरे दिल में धुकधुकी-सी होने लगी। अलकाजी साहिब ने इसके पन्ने पलटना तक गवारा नहीं किया। नहीं, नहीं पन्ने पलटे होंगे, नाटक बे सिर पैर का लगा होगा तो उसे रख दिया कि कभी फ़ुर्सत से पढ़ लेंगे। मैंने मन ही मन कहा- अब मैं नाटक का मुँह नहीं देखूँगा। बलराज ठीक ही कहते होंगे कि यह मेरे वश का रोग नहीं है।
फिर एक दिन यह संभवतः 1976 के जाड़ों के दिन थे, शीला और मैं बुद्ध-जयंती बाग में टहल रहे थे जब कुछ ही दूरी पर मुझे राजिंदर नाथ और सांत्वना जी बाग में टहलते नज़र आए। राजिंदर नाथ जाने-माने निर्देशक थे। जब पास से गुज़रे और दुआ-सलाम हुई तो मैंने कहा!''यार मैंने एक नाटक लिखा है। वक्त हो तो उसे एक नज़र देख जाओ।''राजिंदर नाथ हँस पड़े। कहने लगे,''मैं खुद इन दिनों किसी स्क्रिप्ट की तलाश में हूँ, कुछ ही देर बाद राष्ट्रीय नाट्य समारोह होने जा रहा है।''नेकी और पूछ-पूछ। मैंने नाटक की प्रति उन्हें पहुँचा दी और अबकी बार नाटक शीघ्र ही पढ़ा भी गया। और कुछ ही अर्सा बाद खेला भी गया और वह मकबूल भी हुआ और मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था कि स्क्रिप्ट के नाते प्रतियोगिता में पहले नंबर पर भी आया।
नाटक अभी खेला ही जा रहा था जब एक दिन प्रातः मुझे अमृता प्रीतम जी का टेलीफ़ोन आया। मुझे नाटक पर मुबारकबाद देते हुए बोलीं,''तुमने इमर्जेंसी पर खूब चोट की है। मुबारक हो!''अमृता जी की ओर से मुबारक मिले इससे तो गहरा संतोष हुआ पर यह कहना कि इमर्जेंसी पर मैंने चोट है, सुन कर मैं ज़रूर चौंका। उन्हें इमर्जेंसी की क्या सूझी? इमर्जेंसी तो मेरे ख़्वाब में भी नहीं थी। मैं तो वर्षों से अपनी ही इमर्जेंसी से जूझता रहा था। बेशक ज़माना इमर्जेंसी का ही था जब नाटक ने अंतिम रूप लिया। पर हाँ, इसमें संदेह नहीं कि निरंकुश सत्ताधारियों के रहते, हर युग में, हर समाज में, हानूश जैसे फ़नकारों के लिए इमर्जेंसी ही बनी रहती है, और वे अपनी निष्ठा और आस्था के लिए यातनाएँ भोगते रहते हैं जैसे हानूश भोगता रहा। यही उनकी नियति है।

1 अप्रैल २००७(अभिव्यक्ति से साभार)


The Child Angel


The Child Angel
(by Rabindranath Tagore)

Let your life come amongst them like a flame of light, my child,

unflickering and pure, and delight them into silence।


They are cruel in their greed and their envy,

their words are like hidden knives thirsting for blood


Go and stand amidst their scowling hearts, my child,

and let your gentle eyes fall upon them like the
forgiving peace of the evening over The Child Angel strife of the day


Let them see your face, my child,

and thus know themeaning of all things,

let them love you and love each other.
Come and take your seat in the bosom of the limitless, my child


At sunrise open and raise your heart like a blossoming flower,

and at sunset bend your head and in silence

complete the worship of the day.