Friday, July 13, 2007

सच्चाई की जीत


– रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
ज्ञानपुर नामक गॉंव में एक बुद्धिमान् व्यक्ति रहता था । उसका नाम था बुद्धिराज । गॉंव वाले उसका बहुत आदर करते थे । एक बार बुद्धिराज घूमने के लिए दूर के एक गॉव में चला गया । उस गॉंव का एक किसान बुद्धिराज की बातों से बहुत प्रसन्न हुआ ।
किसान ने खुश होकर अपनी सबसे सुन्दर गाय बुद्धिराज को भेंट में दे दी । वह गाय खूब दूध देती थी ।
बुद्धिराज गाय को लकर अपने गॉंव की तरफ चल दिया । शाम हो गयी थी । गॉंव तक पहुँचने में रात हो जाएगी । बच्चे गाय को देखकर बहुत खुश होंगे । सबको सुबह–शाम दूध पीने को मिलेगा । गाय का नटखट बछड़ा उछलता–कूदता साथ–साथ चल रहा था ।
एक ठग की नजर गाय पर पड़ी । वह बुद्धिराज के पास पहुँचा ओर बोला–‘‘बहुत प्यारी गाय है । बहुत दूध देती होगी ।’’
‘‘ हॉं, छह सेर दूध देती है ।’’
‘‘ तब तो यह गाय मेरे लिए बहुत अच्छी रहेगी ’’– कहकर ठग ने बुद्धिराज के हाथ से गाय का रस्सा छीन लिया – ‘‘ अब यह मेरी गाय है, तुम्हारी नहीं ।’’
‘‘चोर,चोर’’– कहकर बुद्धिराज चिल्लाया ।
शोर सुनकर आसपास के सभी लोग इकट्ठे हो गए । ठग बोला– ‘‘भाइयों यह मेरी गाय है । इसने ‘चोर–चोर’ की आवाज लगाकर आप सबको इकट्ठा कर लिया है । मुझे चोर कहने से यह गाय इसकी नहीं हो जाएगी ।’’ ‘‘ यह झूठ बोल रहा है । यह गाय मेरी है । अगर यह मेरे हाथ से गाय का रस्सा न छीनता तो मैं क्यों चिल्लाता ?’’
‘‘ मैं यह गाय सौ रूपए में खरीद कर लाया हूँ –’’ ठग ने कहा ।
‘‘ मुझे यह गाय एक किसान ने भेंट में दी है –’’ बुद्धिराज बोला ।


‘‘ भाइयों , अब आप खुद ही समझ लो । यदि यह गाय इसकी होती तो यह दाम जरूर बताता । भेंट में मिलने की बात यह इसलिए कह रहा है क्योंकि यह गाय इसकी नहीं है ।’’
‘‘ यह गाय मेरी ही है ’’ – बुद्धिराज ने कहा ।
‘‘ तुम कैसे कह सकते हो कि गाय तुम्हारी ही है – ’’ ठग हॅंसा ।
बुद्धिराज ने अपनी दोनों हथेलियों से गाय की दोनों आँखें ढक ली –‘‘ यह गाय अगर तुम्हारी है तो बताओ, इसकी कौन सी आँख कानी है ?’’
ठग घबरा गया । उसने गाय की आँखें ठीक से देखी ही नहीं थी । वह हिम्मत करके बोला –‘‘ इसकी दाई आँख कानी है ।’’
‘‘आप सब सुन लें । यह दाई आँख कानी बता रहा है –’’ बुद्धिराज जोर से बोला ।
‘‘ नहीं, नहीं ! इसकी बाई आँख कानी है –’’ ठग ने हिम्मत करके कहा ।
बुद्धिराज ने गाय की आँखों से अपनी दोनों हथेलियॉं हटा लीं – आप लोग अच्छी तरह से देख लें । इस गाय की दोनों आँख कानी नही है ।’’
ठग भागने को हुआ लेकिन लोगों ने उसको पकड़ लिया । सबने उसकी खूब पिटाई की । ठग ने सबके सामने कसम खाई –‘‘ मैं अब कभी ऐसा काम नही करूँगा ।’’

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Monday, July 2, 2007

जयशंकर प्रसाद की लघुकथाएँ

आलेख
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


जयंशकर प्रसाद आधुनिक हिन्दी साहित्य के उन गिने-चुने साहित्यकारों में से एक हैं, जिनके साहित्य में भारतीय संस्कृति, जनचेतना, उदात्त्ता, मानव मूल्यों के प्रति चिंता एवं मनोभूमि के उतार-चढ़ाव का सजग अवगाहन मिलता है। युग के प्रति सजगता, ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में वर्तमान का विश्लेषण, स्वच्छंदतावादी कलात्मक दृष्टिकोण, भावानुभूति, प्रकृति के प्रति अनुराग, भाषा की चारुता, शब्द -विन्यास की कोमलता, चितंन की तार्किकता और इन सबके ऊपर मानव चरित्र की सूक्ष्मातिसूक्ष्म परख इनकी शक्ति रही है। प्रसाद अपने युग के ऐसे प्रस्थान बिंदु पर खड़े हैं, जहाँ एक ओर उनकी दृष्टि प्राचीन भारतीय गौरव के महिमामंडित स्वरूप पर केंद्रित है तो दूसरी ओर भविष्य की चिंता से उद्वेलित भी है। वर्तमान की वेदना से उबरने का मार्ग तलाश करना इन चिंताओं के मूल में है। अतीत भावमुग्ध होने के लिए नहीं, बल्कि वर्तमान जड़ता को तोड़ने के लिए है; भविष्य की आशा निराधार कल्पना या शब्द विलास नहीं, वरन्‌ कटु एवं असह्य वर्तमान की दिशा बदलने के लिए उठा वामन-चरण है। सामाजिक जीवन के लिए व्यक्तिगत सुख-साधनों का उत्सर्ग, उदात्त आदर्श की स्थापना के लिए संघर्ष, रुढ़ियों एवं आडंबरों के प्रति साहसपूर्ण प्रतिरोध एवं विद्रोह का स्वर इनकी सभी कृतियों में समाहित है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि इनके लिए अतीतजीवी होना या घटनाओं और तिथियों का दोहराव नहीं, वरन्‌ तात्कालिक आवश्यकता है, वर्तमान का उत्तर तलाशने की व्याकुलता है। इन्हें अतीत या अतीत के चित्र और चरित्र उतने ही स्वीकार्य हैं, जितने वे वर्तमान के निर्माण में सहायक हैं। अवरोधक बनी प्राचीन व्यवस्था या दम तोड़ती, प्रतिहिंसा जगाती किसी विचार-संस्कृति के प्रति कोई मोहजनित आग्रह नहीं है।

‘प्रतिध्वनि’ प्रसाद की लघुकथाओं का संग्रह है। 1925 में प्रकाशित इस संग्रह की रचनाओं को डॉ. सूर्यप्रसाद दीक्षित (‘प्रसाद का गद्य’) ने भी लघुकथाएँ माना है। इन लघुकथाओं का युग दो विश्वयुद्धों के बीच का युग रहा है। प्रतिहिंसा, छलछद्‌म, टकराव, धूर्तत्तापूर्ण राजनीति, अंध शक्ति का विस्फोट, हृदयहीन वैज्ञानिकता, धार्मिक संकीर्णता, श्रेष्ठता का मिथ्याबोध, अहमन्यता, शोषक-वर्ग का मधुवेष्टित वाग्जाल पूरे विश्व को महायुद्ध के ज्वालामुखी में धकेलने को आतुर थे। भविष्य की अनिश्चितता ने निराशा को जन्म दिया, साथ ही सांकेतिकता का मार्ग प्रशस्त किया। अवचेतन में एक और मानव मन में दुबका हुआ भय था तो दूसरी ओर शक्ति-मद में चूर वर्ग का प्रतिहिंसारूपी दानव। राजनीतिक स्तर पर गांधी सत्य-अहिंसा की प्रतिष्ठा स्थापित करने में प्राण-पण से जुटे थे। प्रसाद के पात्रों में जहाँ असहाय होने की पीड़ा और विवशता है, उतने ही वेग में शोषित-दमित होने के बावजूद परिस्थितियों को उलट देने का आक्रोश एवं संकल्प भी है।

प्रसाद ने अपनी अधिकतर लघुकथाओं के चरित्र यथार्थ की अपेक्षा कल्पना से गढ़े हैं। इनके स्वच्छंदतावादी पात्र प्रेम, करुणा, सौंदर्य, भावुकता आदि गुणों के कारण स्वाभाविक कम, स्वप्नलोक की सृष्टि अधिक लगते हैं। फिर भी, मानवता को पद-दलित करनेवाली शक्तियों का विरोध, पराधीनता के प्रति आक्रोश, भारतीय दर्शन और चिंतन के प्रति श्रद्धा, प्रेम और विवाह से जुड़ी भ्रांत धारणाओं का खंडन, आडंबरों के विपरीत आस्था की शुचिता मुखर है। केंद्रबिंदु के रूप में हैं - शाश्वत्‌ मानव मूल्य। इनके पात्रों के प्रगतिशीत चरित्र अपने युग से भी आगे बढ़कर चलने के लिए आतुर हैं। प्रेम, दया, उदारता, मन की पवित्रता आज के युग में अपना मूल्य खोते जा रहे हैं। प्रसाद अपनी लघुकथाओं के द्वारा इनकी पुनर्स्थापना के लिए चिंतित लगते हैं। यही कारण है कि प्रसाद के पात्र -’प्रसाद’, ‘गूदड़ साईं’, ‘पत्थर की पुकार’, ‘खंडहर की लिपि’, ‘दुखिया’ आदि लघुकथाओं में इनके लिए संघर्षरत हैं। इन पात्रों में यह प्रस्फुटन बाह्य संघर्ष के रूप में कम, अंत:संघर्ष के रूप में अधिक मिलता है। प्रसाद के नारी पात्र भावुकता एवं गंभीरता की प्रतिमूर्ति हैं। उनमें विद्रोह है, किंतु नैतिकता और संयम का अंकुश भी है। वह पुरुष के साथ उसकी शक्ति के रूप में मौजूद है, दुर्बलता के रूप में नहीं। ‘पाप की पराजय’, ‘सहयोग’, ‘कलावती की शिक्षा’, ‘प्रतिमा और प्रलय’ आदि लघुकथाएँ इसके उदाहरण हैं।

प्रसाद वैयक्तिक विचारधारा के साहित्यकार हैं, फिर भी सांस्कृतिक चेतना के रूप में इनका समष्टिगत चिंतन उभरकर सामने आता है। समाज के ज्वलंत प्रश्नों का अपनी रचनाओं में प्रसाद ने विवेचन किया है। प्रसाद का युग भंयकर उलटफेर का युग था। गुलामी की अपमानजनक पीड़ा मनमानस को मथ रही थी। अत: मुक्ति का संकल्प इनके पात्रों के विशेषता है। यह मुक्ति चाहे जंग खाई मान्यताओं से रही हो, चाहे राजनीतिक ऊहापोह से। सामयिक प्रश्नों की चर्चा सीधे तौर पर न होकर प्राय: परोक्ष रूप में हुई है। ये लघुकथाएँ समय विशेष की परिधि में बँधकर नहीं चलीं। ये शाश्वत सत्यों के प्रति प्रतिबद्ध हैं। ‘सहयोग’, ‘चक्रवर्ती का स्तंभ’, ‘पत्थर की पुकार’ आदि लघुकथाओं का कालबोध अत्यंत व्यापक है।

‘प्रसाद’ लघुकथा में निर्माल्य की अपेक्षा मन की शुचिता को महत्त्व दिया गया है। समर्पण भाव ही सच्ची भक्ति है और देवता को प्रसन्न करने का एकमात्र साधन। इस प्रकार प्रसाद ने इस कथा में ‘उपादान’ को ही भक्ति मान लेने के भ्रम का निवारण किया है। सरला के श्रद्धापूर्वक अर्पित किए गए थोड़े-से पुष्पों से नग्न और विरल शृंगार मूर्ति सुशोभित हो उठी। प्रसादस्वरूप जाने या अनजाने में पुजारी ने भगवान की एकावली सरला की झुकी हुई गर्दन में डाल दी। प्रतिमा प्रसन्न होकर हँस पड़ी। प्रतिमा की यह प्रफुल्लता वस्तुत: श्रद्धा भाव की स्वीकृति है, सच्चा प्रसाद है। ‘गूदड़ सांई’ का गूदड़धारी साधु आध्यात्मिक ऊँचाई को स्पर्श करने वाला व्यक्ति है। “सोने का खिलौना तो उचक्के भी छीनते हैं, पर चिथड़ों पर भगवान ही दया करते हैं।” सांई के अनुसार गूदड़ छीनकर भागने वाले बच्चे भगवान का ही प्रतीक हैं। स्वयं चोट खाने पर न रोना तथा लड़के पर मार पड़ते देखकर रो पड़ना ही सच्ची करुणा है। प्रसाद ने ‘गूदड़ सांई’ के द्वारा मानव मन की करुणा को प्रतिष्ठित किया है। ‘गूदड़ी में लाल’ अभागिनी किंतु स्वाभिमानी बुढ़िया की चरित्र प्रधान कथा है। शरीर थक जाने पर भी वह किसी की दया पर आश्रित नहीं रहना चाहती। रामनाथ उससे कुछ भी काम नहीं लेना चाहता, दयाद्र होकर उसको सहायता देना चाहता है; किंतु बुढ़िया की समस्या है - “मैं बिना किसी काम के लिए इसका पैसा कैसे लूँगी? क्या यह भीख नहीं?’’श्रम की महत्ता और स्वाभिमान एक-दूसरे के पूरक हैं। कर्म-विरत होकर उदरपोषण करने वाले स्वाभिमान की रक्षा नहीं कर सकते। सामयिक प्रश्न के रूप में परतंत्रता की पीड़ा भी इस लघुकथा में व्यक्त हुई है – “जिस देश का भगवान ही नहीं, उसे विपत्ति क्या! सुख क्या!” प्रकारांतर से प्रसाद गुलामी के जीवन को कष्टकर मानते हैं। बुढ़िया की निराशा में भी जीवन के क्रूर प्रश्न छिपे हुए हैं। वह ईश्वर के विषय जाल को भी चुनौती के रूप में स्वीकार करती है।


‘अघोरी का मोह’ में प्रसाद का दार्शनिक रूप उभरा है। जिस दार्शनिक चिंतन का जीवन के कटु यथार्थ से परिचय नहीं, वह अधूरा है। जीवन से भागना कोई तप-साधना नहीं, वरन्‌ पलायन है। मानव अपने मन के निगूढ़ सत्य को समझने का प्रयास नहीं करता। उसकी संवेदना जो उसे मानव बनाए रखने के लिए जरूरी है; उसकी शक्ति का यथार्थ है। अघोरी बना किशोर का मित्र ललित, उसके खेलते हुए बच्चे को चूमने लगा। न पहचानने के कारण किशोर ने उसको ऐसा करने से मना कर दिया तो वह निराश और हताश हो उठा। आँखें डबडबा आई। पारिवारिक जीवन के प्रति मोह की जागृति ही इस कथा का उद्देश्य है। अघोर व्रत धारण करने पर भी उसका मन अघोरी नहीं हुआ। ‘पाप की पराजय’ की मूल स्वर पाप-पुण्य का अंतर्द्वंद्व है। पाप-पुण्य की परिभाषा जीवन की परिस्थितियों से उपजती है। वासना-सौंदर्य और कर्त्तव्य की त्रिआयामी चिंतन में करुणाश्रित कर्त्तव्य ही सर्वोपरि है, क्योंकि यही कर्तव्य सद्‌वृत्ति के जागरण का प्रमुख कारक है। ‘केतकी वन की रानी’ अपनी अकाल पीड़ित जनता के लिए अपनी अस्मिता भी दाँव पर लगाने को तत्पर है अपने रूप को बेचकर भी अनाथों की सहायता करना चाहती है वह रूप-विक्रय के इस कार्य को पुण्य समझती है। घनश्याम के मना करने पर वह उसे स्मरण दिलाती है; “छि:, पाप के लिए साहस था और पुण्य के लिए नही?’’ उत्तर में घनश्याम रो पड़ा। सत्‌-असत्‌ के अंतर्द्वंद्व से सच्चे सौंदर्य का ज्ञान हुआ। यह सौंदर्य है करुणा, जो कर्तव्य-बोध कराकर वासना के कलुष को भस्मीभूत करती है । सौंदर्य असत्‌ नहीं हैं, अत: भोग्य नहीं है। सौंदर्य सत्‌ है, करुणा जगानेवाला है। अत: उपासना के योग्य है। ऐसे ही ‘सहयोग’ में दांपत्य के संतुलित संबंध की महत्ता प्रतिपादित की है। नारी पर क्रूर शासन करना पौरुष की विजय नहीं, वरन्‌ पराजय है। शूद्रा पत्नी मनोरमा अपने विनीत स्वभाव से ससुराल में आत्मीय भाव स्थापित कर लेती है। प्रसाद के अनुसार- ‘उसे द्विजन्मा कहने में कोई बाधा नहीं।’ इस प्रकार वर्णव्यवस्था को जन्मना मान लेने के जड़ विचार पर प्रसाद ने अतीत मोह का त्याग करके कड़ा प्रहार किया। नारी सहज रूप में चिरसंगिनी बनकर रहे, न कि दासी बनकर। नारी को पशु-संपत्ति मानने का प्रसाद ने अपनी अन्य रचनाओं में भी विरोध किया है। अछूतोद्धार आंदोलन का भी इस लघुकथा पर प्रभाव लक्षित होता है।

‘पत्थर की पुकार’ लघुकथा में भारत की परतंत्रता की पीड़ा ही मुख्य रूप से प्रकट हुई है। शिल्पी के माध्यम से वायवी चिंतन पर व्यंग्य किया गया है। अमीर आदमी पत्थर का रोना और पवन की हँसी सुन लेते हैं, परंतु दुखी हृदय की व्यथा नहीं। दुखी हृदय की पीड़ा सुनना ही सच्ची कला है। ‘उस पार का योगी’ प्रसाद की रहस्यवादी लघुकथा है। इस लघुकथा में कथा सूत्र अत्यंत विरल है। प्रणय की संवेदना को सार्वभौम बताया गया है। किरण और लहर जैसे मानवेतर पात्र भी इसे लघुकथा की अपेक्षा भावकथा का रूप प्रदान करते हैं। ‘करुणा की विजय’ में न्याय की पृष्ठभूमि पर विचार किया गया है। न्याय का दायित्व यह भी है कि वह अपराध के सही कारण का पता लगाए। अपराध का जन्म अगर व्यवस्था की उत्तरदायित्वहीनता से हुआ है तो उसका दंड किसी अन्य व्यक्ति को नहीं दिया जा सकता। इस समस्यामूलक लघुकथा में लेखक ने निर्धनता को न्याय और राष्ट्र दोनों के लिए जटिल समस्या माना है। वह सामाजिक न्याय को प्रमुख मानता है। इस लघुकथा में निर्धनता और करुणा का अंतर्द्वंद्व वस्तुत: सामाजिक विवशता और न्याय प्रक्रिया का अंतर्द्वंद्व है। जब न्याय करुणा का सहारा लेता है, तभी अंतर्द्वंद्व का अवसान होता है। भारत को पराधीन बनाकर न्याय के साथ खिलवाड़ करनेवाली अंग्रेजी सरकार के लिए न्याय-बुद्धि से काम लेने का संकेत यहाँ किया गया है।

‘खडंहर की लिपि’ में नारी-प्रेम की उदात्तता, संवेदना की मसृणता को गहराई से अभिव्यक्त किया गया है। लिपि के संदर्भ में सांस्कृतिक वैभव को भी प्रकट किया गया है। निर्दोष कामिनी देवी के सच्चे प्रेम को समय पर न समझ पाने के कारण युवक की छटपटाहट एवं विवशता मार्मिक ढंग से व्यक्त हुई है। ‘कलावती की शिक्षा’ में नारी पुरुष की सहचरी के रूप में है, अनुचरी के रूप में नहीं। कठपुतली के व्याज से कलावती अपने शिक्षित पति श्यामसुंदर पर कलात्मक रीति से व्यंग्य करती है। कलावती अंतरात्मा के दासत्व को भी स्वीकार करने के पक्ष में नहीं है। ‘चक्रवर्ती का स्तंभ’ लघुकथा का आधार ऐतिहासिक है। प्रकृति धर्म और चिंतन से ऊपर है। जो प्रकृति के विरुद्ध आचरण करता है, वह मानव-मूल्यों का उल्लंघन करता है। प्रकृति अपने मार्ग में आनेवाले हर अवरोध को नष्ट कर डालती है। ‘समस्त जीवों के प्रति दया भाव’ इस कथा की स्थापना है। प्रसाद का बौद्ध-दर्शन के प्रति विशेष झुकाव परिलक्षित होता है। ‘दुखिया’ में दुखिया दुखी नारी का प्रतीक है। प्रेम एवं परिश्रम की साक्षात्‌ प्रतिमूर्ति दुखिया कर्म को महत्त्वपूर्ण मानती है। जीवन के सुख का छोटा-सा क्षण सारे दु;खों और अभावों को पोंछ देता है। रेखाचित्र की शैली में लिखी गई यह कथा दुखिया के स्वाभिमान और भावुकता को लेकिन पूरी तरह नहीं उभार सकी हैं।

‘प्रतिमा’ और ‘प्रलय’ लघुकथाएँ न होकर गद्य-काव्य के निकट हैं। ‘प्रतिमा’ में काव्यमय चित्रण के द्वारा विश्वास का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। परित्यक्त मंदिर की प्रतिमा विश्वास का संबल पाकर पूज्य हो उठी। इसी रचना में ‘शिव-प्रतिमा’ का कुंज बिहारी होना विश्वास का ही प्रतीक है। ‘प्रलय’ में प्रकृति और पुरुष, शक्ति और शिव रूप में चित्रित हैं। प्रलय एवं सृष्टि दोनों ही जीवन के लिए अनिवार्य हैं, क्योंकि प्रलय भी एक सृष्टि है। प्रलय भी कल्याणकारी है। ‘कामायनी’ का बीजरूप इस रचना में निहित है।

वातावरण का सजीव चित्रण करने के लिए प्रसाद ने अपनी लघुकथाओं में काव्यमयी भाषा का प्रयोग किया है। ऐसे स्थलों पर भावावेग के कारण कथानक शिथिल हुआ है। ‘प्रसाद’, ‘पाप की पराजय’, ‘खंडहर की लिपि’, ‘दुखिया’ जैसी लघुकथाएँ ऐसे प्रसंगों से प्रभावित हुई हैं। ‘गूदड़ सांई’ रेखाचित्र के ज्यादा निकट है। संवादों में शिथिलता नहीं, कथानक भी पूर्णतया संश्लिष्ट है। ‘गुदड़ी में लाल’ स्वाभिमान के एक बिंदु पर आधारित है। स्वगत कथन में दार्शनिकता का समावेश किया गया। ‘अघोरी का मोह’ कथा का अंतराल 25 वर्षों का है। फिर भी, कथा की एकान्विति खंडित नहीं हुई है। प्रसाद ने सांकेतिक रूप से ललित की उपस्थिति का आभास करा दिया है। ‘मोह’ का भाव रूप ही इस लघुकथा की रीढ़ है। यही कारण है कि घटनाओं का अंतराल बाधा नहीं बनता।

‘पाप की पराजय’ का आकार बड़ा है, जो लघुकथा के सांचे में नहीं अंटता, परंतु यह कथा एक ही विचार-बिंदु से अंकुरित होती है। वह बिंदु है : आखिर पाप क्या है? सांकेतिक शैली की पूर्णतया निर्वाह हुआ है। ‘सहयोग’ के वस्तु-विन्यास में व्यंजना की प्रमुखता है। ‘पत्थर की पुकार’ का शिल्प संतुलित, भाषा सांकेतिक, संवाद नाटकीय, शैली गद्यगीत की एवं कथावस्तु ऐतिहासिक है। ‘उस पार का योगी ‘बिखराव और अस्पष्टता के कारण बोझिल हुई है। मानवीकरण एवं प्रतीक प्रयोग के कारण लघुकथा का प्रवाह अवरुद्ध हुआ है। ‘करुणा की विजय’ में घटनाओं का घात-प्रतिघात रचना को प्रवाहमयी बनाता है। पात्रों का मानवीकारण सहज एवं कथ्य के अनुकूल है। ‘खडंहर की लिपि’ में संक्षिप्तता, भावात्मक शैली और विशद सुकुमार कल्पना लघुकथा को सशक्त बनाते है। भाषा की कमनीयता प्रेम के वातावरण को सजीव बनाने में सहायक है। जिन लघुकथाओं का आरंभ संवादों से हुआ है, उनमें प्रवाह बना हुआ है। ‘कलावती की शिक्षा’, ‘चक्रवर्ती का स्तंभ’, ‘पत्थर की पुकार’, ‘अघोरी का मोह’, ‘गूदड सांई’ इसी श्रेणी की लघुकथाएँ हैं।

‘प्रतिध्वनि’ की इस पंरपरा को ‘वैरागी’(आकाशदीप) जैसी लघुकथाएँ शिखर तक पहुँचाती हैं। यह लघुकथा प्रसाद की प्रतिनिधि लघुकथा कही जा सकती है। प्रसाद की ये लघुकथाएँ अपने युग के प्रति जितनी प्रतिबद्ध हैं, शाश्वत जीवन मूल्यों के प्रति भी उतनी ही चिंताकुल हैं। भाषा का गौरव और साहित्य की महिमा, दोनों ही इनसे निरतंर उच्च से उच्चतर हुए हैं।

BOOK REVIEW


Play Activities for Child Development
- Mina Swaminathan
Prema Daniel
(National Book Trust, India
Price: Rs १३०
Smt. Sudesh DattTGT (Eng)

K.V O.E.FHazratpurDist.Firozabad-283103(U.P.)


An enriching, practical, wholesome and systematic book available at low cost for teachers willing to learn and improve their skills. It is a must read for Pre-School teachers as it encourages play based and interactive methodology of teachers.
The book caters to the fulfillment of the objectives of childhood education.
The language is simple and direct and stimulates the teacher to think and be innovative and modify according to needs.

The activities are divided into 7 categories
Ø Physical Development
Ø Sensory and Motor Development
Ø Cognitive Development
Ø Language Development
Ø Social and Personal Development
Ø Emotional and Aesthetic Development
Ø Readiness for the 3 R’s
This facilitates the selection of activities by the teacher to go straight to the activity of choice or need.
As many as 140 games that can be played indoors or outdoors, in pairs, small, medium or large groups have been dealt with in detail.
Each game ensures involvement of each and every child.
There are activities for the body, hands, mind and senses. The book helps in the development of the child in every domain. It fosters the mastery of body control, exploration, creativity, social training, emotional balance and language skills.
Above all, the activities in the book highlight that one does not need expensive equipment in order to organize a worthwhile programme of play activities for young children.
A must have with every Pre-School Teacher.

नीव का पत्थर – पहला अध्यापक

पहला अध्यापक – मूल लेखक चिंगिज ऐटमाटोव
अनुवाद – भीष्म साहनी
बुक ट्र्स्ट इण्डिया – मूल्य 25/– पृष्ठ संख्या 69

* ॠषि कुमार शर्मा
आज देश मे सर्वसाक्षरता अभियान पूरे जोर पर है । ऐसे समय मे आवश्यकता है कि भारत में भी कोई कोई ‘पहला अध्यापक ’ अवतरित होकर साक्षरता के क्षेत्र मे वही क्रांति लाए, जो कि लेनिन के मृत्यु से पहली दूइशेन मास्को के एक गॉव कुरकुरेव मे लाया था ।

नेशनल बुक ट्र्स्ट द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘ पहला अध्यापक ’मूल रूप मे ‘दूइशेन’ नामक रुसी पुस्तक है जिसका अनुवाद भीष्म साहनी ने किया है ।पुस्तक को पढ़ते समय पाठक के मानस पटल पर एक ऐसे जुनूनी,शिक्षा के प्रति दीवानगी तक समर्पित अध्यापक का चित्र उभरने लगता है :– दूइशेन द्वारा स्थापित विद्यालय की प्रथम छात्रा आल्तीनाई के शब्दों ‘‘क्या कोई सोच सकता है कि किस प्रकार एक अर्धशिक्षित युवक जो कि मुश्किल से अक्षर जोड़कर पढ़ पाता है, जिसके पास कोई पाठ्य–पुस्तक नही है, कैसे एक ऐसे काम को हाथ मे लेने का साहस कर पाया जो वास्तव मे एक महान था । ऐसे बच्चों को पढ़ाना क्या कोई मजाक है जिनकी पिछली सात पीढि़यों ने स्कूल तक न देखा हो । दूइशेन बच्चों को पढ़ाया करता था ,अपनी सूझ–बूझ एवं अन्त:प्रेरणा के बल से । शिक्षा के प्रति उसका जुनून तथा दीवानगी ने ही उससे एक बड़ा कारनामा कर दिखाया ।

अपने विद्यालय के बच्चों के प्रति उसके मातृत्व स्नेह का अंदाजा इन पंक्तियों से सहज ही लगाया जा सकता है:– ‘‘ सर्दी का मौसम आया,बर्फ़ पड़ने पर नाले को लॉघकर स्कूल जाना असह्य हो गया, ठण्ड के मारे छोटे बच्चों की तो आँखों में आँसू आ जाया करते थे, तब दूइशेन उन्हें खुद उठाकर नाला पार कराता । एक बच्चे को गोद मे उठाता तो दूसरे को पीठ पर बिठा लेता ।

अपने विद्यालय के बच्चों के प्रति वचनबद्धता का ऐसा उदाहरण शायद ही कहीं मिले जैसा कि दूइशेन के चरित्र मे मिलता है । “मैने बच्चों को वचन दिया था कि मै आज जरूर लौट आऊँगा’’ दूइशेन ने जवाब दिया – कल हमें जरुर पढ़ाई शुुरू कर देनी है । ‘ पगला कही का ’–करतनबाई उठकर बैठ गया और गुस्से के कारण जोर–जोर से सिर हिलाने लगा -”सुनती हो बुढि़या – देखती हो इसने उन बच्चों को, पिल्लों को वचन दे रखा था, भाड़ मे जाए सब, अगर आज तुम ही जिंदा न बचते ,भूल से भेडि़ए तुम्हें भी फाड़कर खा सकते थे । जरा सोचो, दिमाग से काम लो।
‘‘यह मेरा कर्त्तव्य, मेरा काम है दादा ।’’

अगर दूइशेन ऐटमाटोव की अमरकृति है तो भीष्म साहनी ने भी हिन्दी अनुवाद अत्यंत सूझबूझ एवं कहानी मे डूबकर किया है, अनुवाद मेँ साम्यवादी झलक स्पष्ट दिखाई देती है तथा आत्म कथ्यात्मक तत्व भी आसानी से देखे जा सकते है । प्रकृति तथा परिवेश के सजीव चित्रण तथा सैबाल चटर्जी के चित्रों ने पुस्तक को और अधिक रोचक बना दिया है ।

ख्यातिप्राप्त अकादमीशियन बन चुकी दूइशेन विद्यालय की प्रथम छात्रा आल्तीनाई सुलैमानोव्ना को विद्यालय के उदघाटन के लिए आमंत्रित किया जाता है । इस अवसर पर अपने अध्यापक के प्रति उसके भाव अत्यंत हृदयस्पर्शी एवं मार्मिक है :–

‘‘सम्मान का अधिकारी था हमारा पहला अध्यापक । हमारे गॉव का पहला कम्यूनिस्ट – बूढ़ा दूइशेन– मैं अपने आपसे पूछती हूँ कि कब से हमने सीधे–सादे इंसान का आदर करने की क्षमता खो दी है । क्यूँ हम ऐसे वक्त पर नींव के पत्थर कों भूलकर सिर्फ़ ध्वजा को ही नमन करते हैं ।’’

यह पुस्तक निश्चित रूप से भारत के ही नही अपितु विश्व के प्राथमिक शिक्षकों के चिंतन,मानसिकता एवं सोच को बदलने मे पूर्णत: सक्षम है । इस पुस्तक को पढ़कर कोई भी शिक्षक सृजनात्मक शिक्षा के लिए अपना सक्रिय योगदान प्रदान कर सकता हैं ।यह पुस्तक निश्चित रूप से विद्यालयों के पुस्तकालयों के लिए एक अनमोल निधि है । पहला अध्यापक को अगर शिक्षा की बाइबिल कही जाए तो अतिशयोक्ति न होगी ।

समीक्षक
ऋषि कुमार शर्मा
पुस्तकालयाध्यक्ष
केन्द्रीय विद्यालय आयुध उपस्कर निर्मा‍णी
हजरतपुर फिरोजाबाद – उत्तर प्रदेश –283103

कम लागत, बिना लागत ,शिक्षण–सहायक सामग्री


* कम लागत, बिना लागत ,शिक्षण–सहायक सामग्री
* मेरी ऐन दास गुप्ता , अनुवादक : अरविन्द गुप्ता
नेशनल बुक ट्र्स्ट इण्डिया मूल्य : रू0 35/– पृष्ठ संख्या 82

* श्रीमती गुर प्यारी खन्ना


प्राथमिक–शिक्षिका के 0 वि0 हजरतपुर,फिरोजाबाद।

प्रस्तुत पुस्तक शिक्षा मे आए नए क्रान्तिकारी परिवर्तनों के लिए मेरी ऐन दास गुप्ता का शिक्षण के क्षेत्र से जुड़े व्यक्तियों के लिए सफल प्रयास है । जैसा कि सर्वविदित है कि आज शिक्षण–पद्धति, रटन–पद्धति से दूर क्रिया–कलापों द्वारा ज्ञान देने पर आधारित है ।

यह पुस्तक प्राथमिक विभाग के नन्हें–मुन्नों के मानसिक–स्तर व उनके स्वभाव को ध्यान मे रखकर लिखी गई है । एक शिक्षक इस पुस्तक के क्रमबद्ध निदे‍र्शों, स्पष्ट चित्रों के माध्यम से घर मे बेकार व दैनिक उपयोग की चीजों के माध्यम से कम लागत तथा बिना किसी लागत के सहायक –शिक्षण–सामग्री बनाकर अपने शिक्षण को रुचिकर व उपयोगी बना सकता है । सभी शिक्षण–सामगी सोच और खोज की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करती हैं। जैसे :– सोडा बोतलों के ढक्कनों से गिनती की माला, शब्दकोश के विकास के लिए माचिस की डिब्बियों से प्रदर्शनी का निर्माण,आँख व हाथ के समन्वय के लिए चिमटियों को डिब्बें मे गिराना, सामाजिक– ज्ञान, कहानी– कथन व अभिनय के लिए मौजों व माचिस द्वारा कठपुतली व जानवरों का निर्माण करना ।

इस प्रकार 48 सहायक शिक्षण–सामग्री को लेखिका ने चार समूहों मे बॉटा है :–
1: बुनियादी गणित 2: शब्दकोश का निर्माण 3: आँख और हाथ का समन्वय 4:सामाजिक–ज्ञान, अभिनय और खेल । ये चारों समूह बच्चों के बौद्धिक विकास, सामाजिक, भावात्मक तथा सृजनात्मक विकास मे पूर्ण सहायक होगें, क्योंकि मानव का स्वभाव होता है कि वह जो कुछ सुनता और देखता है, समय के साथ विस्मृत होने लगता है । परन्तु स्वयं किया गया कार्य हमेशा स्मरण–शक्ति मे विद्यमान रहता है । यह पुस्तक ‘ करके सीखना ’
Learning by doing ) के नियम पर आधारित है । मेरे मतानुसार प्रत्येक प्राथमिक शिक्षक को यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए ।


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