Sunday, June 24, 2007

क्रिया-भेद

क्रिया-भेद [अकर्मक,सकर्मक]

क्रिया की परिभाषा- जिन शब्दों से किसी कार्य के करने,होने अथवा किसी स्थिति का बोध हो,उन्हें क्रिया कहते हैं।


[क] अकर्मक क्रिया-जिस क्रिया का फल कर्म पर नहीं, कर्ता पर पड़ता है,उसे अकर्मक क्रिया कहते हैं। अकर्मक क्रिया में किसी कर्म की आवश्यकता नहीं होती।यथा-

• अजीत पढ़ता है।

• बच्चा हँसता है।

अकर्मक क्रिया के भेद-

1-स्थित्यर्थक या अवस्थाबोधक पूर्ण अकर्मक क्रिया-

• प्रशान्त हँस रहा है।

• मोहन बैठा था।

• बच्चा गिर गया ।

2-गत्यर्थक [पूर्ण]अकर्मक क्रिया-

• पिताजी घर जा रहे हैं।

• पानी बह रहा है।

• पक्षी उड़ रहे हैं।

3-अपूर्ण अकर्मक क्रिया-

• बच्चा स्वस्थ हो गया।

• तुम अफसर बनोगे।

• दूकानदार चालाक निकला।

[ख] सकर्मक क्रिया

1-पूर्ण एककर्मक क्रिया

• माताजी खाना बना रहीं हैं।

• तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना की।

• धरती स्वर्ग बनाना है ।

• विद्यार्थी हिन्दी पढ़ रहे हैं

2-पूर्ण द्विकर्मक क्रिया-

• खेल शिक्षक बच्चों को खो-खो खिला रहे हैं।

• प्रिया ने बिल्ली को दूध पिलाया।

• प्राचार्यजी छात्रों को हिन्दी पढ़ा रहे हैं ।

3-अपूर्ण सकर्मक क्रिया-

• आप हमारे हैं।

• जनता ने उन्हें चुना।

• मैं आपको मानता हूँ।

प्रेरणार्थक क्रिया-जब कर्ता स्वयं क्रिया नहीं करता,बल्कि एक या दो प्रेरकों की सहायता से क्रिया सम्पन्न करवाता है तो उसे प्रेरणार्थक क्रिया कहते हैं। जैसे-

• मालिक माली द्वारा पौधौं में पानी लगवाता है।
दादाजी मेरे छोटे भाई से पतंग उड़वा रहे हैं।

• माँ ने नौकरानी द्वारा बच्चे को दूध पिलवाया।

वाक्य प्रयोग-

चलना- अ-राकेश चलेगा।

ब-राकेश बच्चे को चलाएगा।

घूमना- अ-मैं घूमूँगा।

ब- मैं उसे घुमाऊँगा।

सोना- अ-बेटा सो गया।

ब- माँ ने बेटे को सुला दिया।

टूटना- अ-पेड़ टूट गया।

ब-तुमने पेड़ तोड़ दिया।

अव्यय-अव्यय का शाब्दिक अर्थ है-‘जो व्यय न हो’।अव्यय को अविकारी भी कहते हैं। अविकारी का अर्थ है-‘जिसमें विकार या परिवर्तन् न आए’।

अतः ऐसे शब्द जिनके रूप में लिंग, वचन, कारक, काल, पुरुष आदि के कारण कोई परिवर्तन नहीं आता,जो सदा अपने मूल रूप में बने रहते हैं, उन्हें अव्यय या अविकारी शब्द कहते हैं।


अव्यय के प्रकार-

1-क्रियाविशेषण

2-संबंधबोधक

3-समुच्चयबोधक

4-विस्मयादिबोधक

5-निपात

1- क्रियाविशेषण[Adverb]
क्रिया की विशेषता बताने वाले अव्यय शब्द क्रियाविशेषण कहलाते हैं। जैसे-

प्रतीक तेज दौड़ता है।

कोयल मीठा गाती है।

बच्चा सदैव मुस्कराता है।

क्रियाविशेषण के भेद:-

1- कालवाचक-

मैं विद्यालय प्रतिदिन जाता हूँ।

आकाश कल कानपुर जाएगा।

मेरी परसों परीक्षा है।

अच्छा अब चलता हूँ।

2- स्थानवाचक

• तुम कहाँ गए थे?

• मेरा दोस्त यहाँ रहता है।

• हम बाहर बैठेंगे।

• आतंकवादी इधर-उधर घूम रहे हैं।


3- परिमाणवाचक-

• तुम बहुत पढ़ते हो।


• कम बोला करो।

• उतना कहो जितना निभा सको।


4- रीतिवाचक-

• तुम धीरे-धीरे चलते हो।

• वह अवश्य आयेगा।

• झूठ मत बोलो।

• बम अचानक फट गया।

• चोर चुपके-चुपके चला आया।


2-संबंधबोधक[post-position]
वे अव्यय,जो संज्ञा-सर्वनाम के साथ जुड़कर उनका संबंध वाक्य के दूसरे शब्दों से बताते हैं,संबंधबोधक कहलाते हैं। जैसे-


• मेरे घर के सामने मन्दिर है।



संबंधबोधक के प्रकार-

1-क्रियाविशेषणात्मक संबंधबोधक-

• कक्षा के अन्दर बैठो।


• वह मुझसे भी तेज दौड़ता है।


अन्य संबंधबोधक अव्यय-

• 1-आज हमें शिक्षक पर्यावरण के विषय में बताएँगे।

• 2-रवि दीपक की तुलना में तेज है।

• 3-जीवन में ईमानदारी के बिना काम नहीं चलता।


3- समुच्चयबोधक [conjunction]
दो पदों, पदबंधों, वाक्यांशों अथवा उपवाक्यों को परस्पर मिलाने वाले अव्यय शब्द समुच्चयबोधक कहलाते हैं। इन्हें योजक भी कहते हैं। जैसे-

• 1-माता और पिता धरती के जीवित भगवान हैं।

• 2-तुमने मेहनत की इसलिए सफल हुए।



समुच्चयबोधक के भेद-

1- समानाधिकरण –जो अव्यय समान घटकों [शब्दों, वाक्याशों, वाक्यों] को परस्पर मिलाते हैं।

ये चार प्रकार के होते हैं-

अ-संयोजक-[और,तथा, एवं]

• फल और मिठाई ले आओ।

ब-विकल्पक[या,अथवा]

• आगरा मैं या मेरा भाई जायेगा।

स-विरोधदर्शक[पर,परन्तु,किन्तु, लेकिन,मगर,बल्कि]-

o मैंने उसे समझाया लेकिन वह नहीं माना।




द-परिणामदर्शक[नहीं तो,अन्यथा,फलतः,इसलिए, परिणामस्वरूप]-

मुझे पढ़ना है, इसलिए खेलना नहीं ।

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अपठित –बोध

अपठित –बोध/ डा सन्तोष कुमार
(गद्यांश व पद्यांश)
1 दिए गए अनुच्छेद को बार-बार ध्यान पूर्वक पढें।

2- गद्यांश को अच्छी तरह पढ़ते हुए उसका केन्द्रीय भाव [Central Idea] समझने का प्रयास करें।

3- गद्यांश को पढ़कर उसका सारांश समझने का प्रयास करें।

4- गद्यांश की महत्त्वपूर्ण बातों पर क्रमांक डालें।

5- अब पूछे गए प्रश्नों को क्रमशः ध्यानपूर्वक पढ़कर इनका उत्तर गद्यांश में खोजें।

6- आपका उत्तर अधिक बड़ा या अधिक छोटा नहीं होना चाहिए।

7-उत्तर तथ्यपरक व पूर्णतासहित होना चाहिए।

8- आपका वाक्य- विन्यास व शब्द- चयन सटीक होना चाहिए।

9- भाषा शुद्ध व सुलेखमय होनी चाहिए।

10- उत्तरों की पुनरावृत्ति करके [जाँचकर] सन्तुष्ट हो जाएँ।

Wednesday, June 20, 2007

नीति के दोहे:वृन्द कवि

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जैसो गुन दीनों दई ,तैसो रूप निबन्ध ।

ये दोनों कहँ पाइये ,सोनों और सुगन्ध ॥ 11

अपनी-अपनी गरज सब , बोलत करत निहोर ।

बिन गरजै बोले नहीं ,गिरवर हू को मोर ॥12

जैसे बंधन प्रेम कौ ,तैसो बन्ध न और ।

काठहिं भेदै कमल को ,छेद न निकलै भौंर ॥13

स्वारथ के सबहिं सगे ,बिन स्वारथ कोउ नाहिं ।

सेवै पंछी सरस तरु , निरस भए उड़ि जाहिं ॥ 14

मूढ़ तहाँ ही मानिये ,जहाँ न पंडित होय ।

दीपक को रवि के उदै , बात न पूछै कोय ॥ 15

बिन स्वारथ कैसे सहे , कोऊ करुवे बैन ।

लात खाय पुचकारिये ,होय दुधारू धैन ॥16

होय बुराई तें बुरो , यह कीनों करतार ।

खाड़ खनैगो और को , ताको कूप तयार ॥17

जाको जहाँ स्वारथ सधै ,सोई ताहि सुहात ।

चोर न प्यारी चाँदनी ,जैसे कारी रात ॥18

अति सरल न हूजियो ,देखो ज्यौं बनराय .

सीधे-सीधे छेदिये , बाँको तरु बच जाय ॥19

कन –कन जोरै मन जुरै ,काढ़ै निबरै सोय ।

बूँद –बूँद ज्यों घट भरै ,टपकत रीतै तोय ॥ 20

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कारज धीरे होत है ,काहे होत अधीर ।
समय पाय तरुवर फरै ,केतिक सींचौ नीर ॥21

उद्यम कबहूँ न छाड़िये , पर आसा के मोद ।
गागर कैसे फोरिये ,उनयो देकै पयोद ॥22

क्यों कीजे ऐसो जतन ,जाते काज न होय ।
परबत पर खोदै कुआँ , कैसे निकरै तोय ॥ 23

हितहू भलो न नीच को ,नाहिंन भलो अहेत ।
चाट अपावन तन करै ,काट स्वान दुख देत ॥24

चतुर सभा में कूर नर ,सोभा पावत नाहिं ।
जैसे बक सोहत नहीं ,हंस मंडली माहिं ॥25

हीन अकेलो ही भलो , मिले भले नहिं दोय ।
जैसे पावक पवन मिलि ,बिफरै हाथ न होय ॥26

फल बिचार कारज करौ ,करहु न व्यर्थ अमेल ।
तिल ज्यौं बारू पेरिये,नाहीं निकसै तेल ॥ 27

ताको अरि का करि सकै ,जाकौ जतन उपाय ।
जरै न ताती रेत सों ,जाके पनहीं पाय ॥ 28

हिये दुष्ट के बदन तैं , मधुर न निकसै बात ।
जैसे करुई बेल के ,को मीठे फल खात ॥29

ताही को करिये जतन ,रहिये जिहि आधार ।
को काटै ता डार को ,बैठै जाही डार ॥30
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गुन-सनेह-जुत होत है , ताही की छबि होत ।
गुन-सनेह के दीप की ,जैसे जोति उदोत ॥31

ऊँचे पद को पाय लघु ,होत तुरत ही पात ।
घन तें गिरि पर गिरत जल ,गिरिहूँ ते ढरि जात ॥32

आए आदर न करै ,पीछे लेत मनाय ।
घर आए पूजै न अहि ,बाँबी पूजन जाय ॥33

उत्तम विद्या लीजिए ,जदपि नीच पै होय ।
पर्यौ अपावन ठौर को कंचन तजत न कोय ॥34

दुष्ट न छाड़ै दुष्टता ,बड़ी ठौरहूँ पाय ।
जैसे तजै न स्यामता ,विष शिव कण्ठ बसाय ॥35

बड़े-बड़े को बिपति तैं ,निहचै लेत उबारि ।
ज्यों हाथी को कीच सों ,हाथी लेत निकारि ॥36

दुष्ट रहै जा ठौर पर ,ताको करै बिगार ।
आगि जहाँ ही राखिये ,जारि करैं तिहिं छार ॥37

ओछे नर के चित्त में ,प्रेम न पूर्यो जाय ।
जैसे सागर को सलिल ,गागर में न समाय ॥38

जाकौ बुधि-बल होत है ,ताहि न रिपु को त्रास ।
घन –बूँदें कह करि सके ,सिर पर छतना जास ॥39

सरसुति के भंडार की ,बड़ी अपूरब बात ।
जौं खरचे त्यों-त्यों बढ़ै , बिन खरचै घट जात ॥40
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Wednesday, June 13, 2007

तुर्रम (बाल उपन्यास) : लेखक - कमलेश भट्‌ट ‘कमल'
प्रकाशक : आत्मा राम एण्ड संस नई दिल्ली
प्रथम संस्करण:2006 , मूल्य: 80 रुपए (सजिल्द) पृष्ठ संख्या:47
प्रस्तुत लघु उपन्यास तुर्रम में श्री कमलेश भट्‌ट ‘कमल' ने बाल सुलभ मन के चित्र बहुत सहजता से उकेरे हैं। पढ़ते समय ऐसा लगा कि मेरा बचपन पुन: लौट आया है।बच्चे वास्तव में मन के सच्चे होते हैं। वे जिसे प्यार करते हैं पूरे मन से प्यार करते हैं। इस उपन्यास का मुख्य पात्र विनीत , तुर्रम नाम के मेंढक से बेहद प्यार करने लगता है। लेखक ने इसका सजीव चित्रण किया है कि बच्चा किस तरह धीरे धीरे तुर्रम से अपने को जोड़ता है। वह जब तक उसके क्रिया कलाप देख नहीं लेता तब तक उसे सुकून नहीं आता। लेखक ने बच्चे के लगाव एवं तुर्रम की हर गतिविधि का सूक्ष्म चित्रण किया है।
हर जीव को पालने के पीछे कुछ फायदे भी होते हैं। जैसे मेंढक मच्छर, कीड़े ,मकौडों को खा जाता है। इस प्रकार मच्छर वातावरण को कीड़े- मकौड़ों से रहित बनाता है। लेखक ने बहुत बारीकी से मेंढ़क की गतिविधियों का अवलोकन किया होगा तभी चित्रण में इतनी सहजता आ सकी है। इस उपन्यास को पढ़कर सबसे पहला विचार यही उभरता है कि हमें जीव -जन्तुओं से प्यार करना चाहिए। जीव -जन्तु किस प्रकार अपने आप को सुरक्षित रखकर स्वतंत्र जीवन जीते हैं। जीव- जन्तु किसी प्रतिबन्ध में रहना पसन्द नहीं करते। घर आने वाले प्रत्येक मेहमान को भी तुर्रम से परिचित कराया जाता है।
लेखक ने अन्त में भी बड़ा सुन्दर चित्रण किया है कि जीव -जन्तु भी अपने साथियों के साथ रहना पसन्द करते हैं न कि किसी प्रतिबन्ध में रहना।साज- सज्जा की दृष्टि से यह बाल उपन्यास उत्तम है। मूल्य अधिक है कुछ कम होता तो अच्छा होता।

दिवा स्वप्न : गिजू भाई बधेका ( हिन्दी में प्रथम संस्करण, मूल गुजराती में 1932 )
हिन्दी अनुवाद : काशिनाथ त्रिवेदी
प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया
मूल्य: 25 रुपए, पृष्ठ संख्या: 86
यह पुस्तक चार खण्डों में विभाजित है:-1 .प्रयोग का प्रारम्भ 2 .प्रयोग की प्रगति 3 .छह महीने के अन्त में 4 .अन्तिम सम्मेलन। लेखक ने लगभग 75 साल पहले जिस शिक्षण- कला के बारे में अपना चिन्तन एक शिक्षक की संघर्ष कथा के रूप में प्रस्तुत किया था. वह आज के शिक्षण की अनिवार्यता हो गई है। अध्यापक की उदासीन मानसिकता को बच्चे किस प्रकार सहन किया करते थे उसे लेखक ने महसूस किया है एवं उसका व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत किया है। लेखक परम्परागत शिक्षण के ढाँचे के पक्ष में नहीं है। वह उसमें आमूल -चूल परिवर्तन का हामी है। वह अनेक प्रयोग करता है। किस प्रकार खेल- खेल में शिक्षा दी जाए, कैसे कहानी के माध्यम से बच्चों के लेखन, श्रवण, वाचन आदि क्रिया- कलाप का विकास हो तथा बच्चों को पाठ्‌यक्रम के अलावा अन्य शिक्षण में निपुण किया जाए, कैसे उनकी उत्सुकता का निराकरण किया जाए।
अध्यापक लक्ष्मीशंकर ने बहुत ही साहस का कार्य किया;जबकि उस समय उनके साथी उनकी शिक्षण- कला का मज़ाक उड़ाया करते थे कि बच्चों को खेल खिलाकर कहानी सुनाकर बरबाद कर रहे हैं।इस सोच के पीछे उस समय ऐसी ही धारणा थी क्योंकि उस समय परम्परागत शिक्षण से हटकर नवीन विधि को लागू करने का जोखिम मोल लेने में असफल हो जाने का डर भी था। बच्चों को केवल डण्डे के बल पर पढ़ाया जा सकता है, यह गलत धारणा बनी हुई थी। ऐसे में लक्ष्मीशंकर का स्थान-स्थान पर अध्यापक साथियों ने खूब मज़ाक उड़ाया, लेकिन वे विचलित नहीं हुए। परिणाम उसी समय दिखाई देने लगे थे । डायरेक्टर साहब ने लक्ष्मीशंकर जी को खूब सहयोग दिया।
शिक्षक ने प्रत्येक विषय को क्रियाकलाप के माध्यम से पढ़ाया। मनोवैज्ञानिक ढंग से अध्ययन एवं विश्लेषण करके पता लगाया कि किस विद्यार्थी की किस कार्य में रुचि है। छात्र को केन्द्र में रखकर परीक्षा में आमूल चूल परिवर्तन किये। लेखक का मानना है कि कुछ बच्चों को पुरस्कृत करके कुण्ठा एवं अभिमान की भावना का ही प्रसार होता है। गिजू भाई की सुझाई गई नई प्रणाली आशाओं से भरे मधुर सपनों को साकार करती है। यह पुस्तक शिक्षक वर्ग के लिए एक उत्प्रेरक का काम करती है और नई से नई पद्वति के अपनाने पर बल देती है।
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Sunday, June 3, 2007

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Easy Vs Difficult


EASY
DIFFICULT


Easy is to judge the mistakes of others
Difficult is to recognize our own mistakes

Easy is to talk without thinking
Difficult is to refrain the tongue

Easy is to hurt someone who loves us.
Difficult is to heal the wound...

Easy is to forgive others
Difficult is to ask for forgiveness

Easy is to set rules.
Difficult is to follow them...

Easy is to dream every night.
Difficult is to fight for a dream...

Easy is to show victory.
Difficult is to assume defeat with dignity...

Easy is to admire a full moon.
Difficult to see the other side...

Easy is to stumble with a stone.
Difficult is to get up...

Easy is to enjoy life every day.
Difficult to give its real value...

Easy is to promise something to someone.
Difficult is to fulfill that promise...

Easy is to say we love.
Difficult is to show it every day...

Easy is to criticize others.
Difficult is to improve oneself...

Easy is to make mistakes.
Difficult is to learn from them...

Easy is to weep for a lost love.
Difficult is to take care of it so not to lose it.

Easy is to think about improving.
Difficult is to stop thinking it and put it into action...

Easy is to think bad of others
Difficult is to give them the benefit of the doubt...

Easy is to receive
Difficult is to give

Easy to read this
Difficult to follow

Easy is keep the friendship with words
Difficult is to keep it with meanings
..................................
Presented by(AASICS)

विद्यालय के गौरव

सोनिया आनन्द तृतीय -कक्षा -12
राजकमल उपाध्याय कक्षा -दस-प्रथम




सपना सिंह -द्वितीय -कक्षा - 12







इन्दु बिष्ट - प्रथम-कक्षा -१२