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Monday, July 2, 2007

BOOK REVIEW


Play Activities for Child Development
- Mina Swaminathan
Prema Daniel
(National Book Trust, India
Price: Rs १३०
Smt. Sudesh DattTGT (Eng)

K.V O.E.FHazratpurDist.Firozabad-283103(U.P.)


An enriching, practical, wholesome and systematic book available at low cost for teachers willing to learn and improve their skills. It is a must read for Pre-School teachers as it encourages play based and interactive methodology of teachers.
The book caters to the fulfillment of the objectives of childhood education.
The language is simple and direct and stimulates the teacher to think and be innovative and modify according to needs.

The activities are divided into 7 categories
Ø Physical Development
Ø Sensory and Motor Development
Ø Cognitive Development
Ø Language Development
Ø Social and Personal Development
Ø Emotional and Aesthetic Development
Ø Readiness for the 3 R’s
This facilitates the selection of activities by the teacher to go straight to the activity of choice or need.
As many as 140 games that can be played indoors or outdoors, in pairs, small, medium or large groups have been dealt with in detail.
Each game ensures involvement of each and every child.
There are activities for the body, hands, mind and senses. The book helps in the development of the child in every domain. It fosters the mastery of body control, exploration, creativity, social training, emotional balance and language skills.
Above all, the activities in the book highlight that one does not need expensive equipment in order to organize a worthwhile programme of play activities for young children.
A must have with every Pre-School Teacher.

नीव का पत्थर – पहला अध्यापक

पहला अध्यापक – मूल लेखक चिंगिज ऐटमाटोव
अनुवाद – भीष्म साहनी
बुक ट्र्स्ट इण्डिया – मूल्य 25/– पृष्ठ संख्या 69

* ॠषि कुमार शर्मा
आज देश मे सर्वसाक्षरता अभियान पूरे जोर पर है । ऐसे समय मे आवश्यकता है कि भारत में भी कोई कोई ‘पहला अध्यापक ’ अवतरित होकर साक्षरता के क्षेत्र मे वही क्रांति लाए, जो कि लेनिन के मृत्यु से पहली दूइशेन मास्को के एक गॉव कुरकुरेव मे लाया था ।

नेशनल बुक ट्र्स्ट द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘ पहला अध्यापक ’मूल रूप मे ‘दूइशेन’ नामक रुसी पुस्तक है जिसका अनुवाद भीष्म साहनी ने किया है ।पुस्तक को पढ़ते समय पाठक के मानस पटल पर एक ऐसे जुनूनी,शिक्षा के प्रति दीवानगी तक समर्पित अध्यापक का चित्र उभरने लगता है :– दूइशेन द्वारा स्थापित विद्यालय की प्रथम छात्रा आल्तीनाई के शब्दों ‘‘क्या कोई सोच सकता है कि किस प्रकार एक अर्धशिक्षित युवक जो कि मुश्किल से अक्षर जोड़कर पढ़ पाता है, जिसके पास कोई पाठ्य–पुस्तक नही है, कैसे एक ऐसे काम को हाथ मे लेने का साहस कर पाया जो वास्तव मे एक महान था । ऐसे बच्चों को पढ़ाना क्या कोई मजाक है जिनकी पिछली सात पीढि़यों ने स्कूल तक न देखा हो । दूइशेन बच्चों को पढ़ाया करता था ,अपनी सूझ–बूझ एवं अन्त:प्रेरणा के बल से । शिक्षा के प्रति उसका जुनून तथा दीवानगी ने ही उससे एक बड़ा कारनामा कर दिखाया ।

अपने विद्यालय के बच्चों के प्रति उसके मातृत्व स्नेह का अंदाजा इन पंक्तियों से सहज ही लगाया जा सकता है:– ‘‘ सर्दी का मौसम आया,बर्फ़ पड़ने पर नाले को लॉघकर स्कूल जाना असह्य हो गया, ठण्ड के मारे छोटे बच्चों की तो आँखों में आँसू आ जाया करते थे, तब दूइशेन उन्हें खुद उठाकर नाला पार कराता । एक बच्चे को गोद मे उठाता तो दूसरे को पीठ पर बिठा लेता ।

अपने विद्यालय के बच्चों के प्रति वचनबद्धता का ऐसा उदाहरण शायद ही कहीं मिले जैसा कि दूइशेन के चरित्र मे मिलता है । “मैने बच्चों को वचन दिया था कि मै आज जरूर लौट आऊँगा’’ दूइशेन ने जवाब दिया – कल हमें जरुर पढ़ाई शुुरू कर देनी है । ‘ पगला कही का ’–करतनबाई उठकर बैठ गया और गुस्से के कारण जोर–जोर से सिर हिलाने लगा -”सुनती हो बुढि़या – देखती हो इसने उन बच्चों को, पिल्लों को वचन दे रखा था, भाड़ मे जाए सब, अगर आज तुम ही जिंदा न बचते ,भूल से भेडि़ए तुम्हें भी फाड़कर खा सकते थे । जरा सोचो, दिमाग से काम लो।
‘‘यह मेरा कर्त्तव्य, मेरा काम है दादा ।’’

अगर दूइशेन ऐटमाटोव की अमरकृति है तो भीष्म साहनी ने भी हिन्दी अनुवाद अत्यंत सूझबूझ एवं कहानी मे डूबकर किया है, अनुवाद मेँ साम्यवादी झलक स्पष्ट दिखाई देती है तथा आत्म कथ्यात्मक तत्व भी आसानी से देखे जा सकते है । प्रकृति तथा परिवेश के सजीव चित्रण तथा सैबाल चटर्जी के चित्रों ने पुस्तक को और अधिक रोचक बना दिया है ।

ख्यातिप्राप्त अकादमीशियन बन चुकी दूइशेन विद्यालय की प्रथम छात्रा आल्तीनाई सुलैमानोव्ना को विद्यालय के उदघाटन के लिए आमंत्रित किया जाता है । इस अवसर पर अपने अध्यापक के प्रति उसके भाव अत्यंत हृदयस्पर्शी एवं मार्मिक है :–

‘‘सम्मान का अधिकारी था हमारा पहला अध्यापक । हमारे गॉव का पहला कम्यूनिस्ट – बूढ़ा दूइशेन– मैं अपने आपसे पूछती हूँ कि कब से हमने सीधे–सादे इंसान का आदर करने की क्षमता खो दी है । क्यूँ हम ऐसे वक्त पर नींव के पत्थर कों भूलकर सिर्फ़ ध्वजा को ही नमन करते हैं ।’’

यह पुस्तक निश्चित रूप से भारत के ही नही अपितु विश्व के प्राथमिक शिक्षकों के चिंतन,मानसिकता एवं सोच को बदलने मे पूर्णत: सक्षम है । इस पुस्तक को पढ़कर कोई भी शिक्षक सृजनात्मक शिक्षा के लिए अपना सक्रिय योगदान प्रदान कर सकता हैं ।यह पुस्तक निश्चित रूप से विद्यालयों के पुस्तकालयों के लिए एक अनमोल निधि है । पहला अध्यापक को अगर शिक्षा की बाइबिल कही जाए तो अतिशयोक्ति न होगी ।

समीक्षक
ऋषि कुमार शर्मा
पुस्तकालयाध्यक्ष
केन्द्रीय विद्यालय आयुध उपस्कर निर्मा‍णी
हजरतपुर फिरोजाबाद – उत्तर प्रदेश –283103

कम लागत, बिना लागत ,शिक्षण–सहायक सामग्री


* कम लागत, बिना लागत ,शिक्षण–सहायक सामग्री
* मेरी ऐन दास गुप्ता , अनुवादक : अरविन्द गुप्ता
नेशनल बुक ट्र्स्ट इण्डिया मूल्य : रू0 35/– पृष्ठ संख्या 82

* श्रीमती गुर प्यारी खन्ना


प्राथमिक–शिक्षिका के 0 वि0 हजरतपुर,फिरोजाबाद।

प्रस्तुत पुस्तक शिक्षा मे आए नए क्रान्तिकारी परिवर्तनों के लिए मेरी ऐन दास गुप्ता का शिक्षण के क्षेत्र से जुड़े व्यक्तियों के लिए सफल प्रयास है । जैसा कि सर्वविदित है कि आज शिक्षण–पद्धति, रटन–पद्धति से दूर क्रिया–कलापों द्वारा ज्ञान देने पर आधारित है ।

यह पुस्तक प्राथमिक विभाग के नन्हें–मुन्नों के मानसिक–स्तर व उनके स्वभाव को ध्यान मे रखकर लिखी गई है । एक शिक्षक इस पुस्तक के क्रमबद्ध निदे‍र्शों, स्पष्ट चित्रों के माध्यम से घर मे बेकार व दैनिक उपयोग की चीजों के माध्यम से कम लागत तथा बिना किसी लागत के सहायक –शिक्षण–सामग्री बनाकर अपने शिक्षण को रुचिकर व उपयोगी बना सकता है । सभी शिक्षण–सामगी सोच और खोज की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करती हैं। जैसे :– सोडा बोतलों के ढक्कनों से गिनती की माला, शब्दकोश के विकास के लिए माचिस की डिब्बियों से प्रदर्शनी का निर्माण,आँख व हाथ के समन्वय के लिए चिमटियों को डिब्बें मे गिराना, सामाजिक– ज्ञान, कहानी– कथन व अभिनय के लिए मौजों व माचिस द्वारा कठपुतली व जानवरों का निर्माण करना ।

इस प्रकार 48 सहायक शिक्षण–सामग्री को लेखिका ने चार समूहों मे बॉटा है :–
1: बुनियादी गणित 2: शब्दकोश का निर्माण 3: आँख और हाथ का समन्वय 4:सामाजिक–ज्ञान, अभिनय और खेल । ये चारों समूह बच्चों के बौद्धिक विकास, सामाजिक, भावात्मक तथा सृजनात्मक विकास मे पूर्ण सहायक होगें, क्योंकि मानव का स्वभाव होता है कि वह जो कुछ सुनता और देखता है, समय के साथ विस्मृत होने लगता है । परन्तु स्वयं किया गया कार्य हमेशा स्मरण–शक्ति मे विद्यमान रहता है । यह पुस्तक ‘ करके सीखना ’
Learning by doing ) के नियम पर आधारित है । मेरे मतानुसार प्रत्येक प्राथमिक शिक्षक को यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए ।


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Wednesday, June 13, 2007

तुर्रम (बाल उपन्यास) : लेखक - कमलेश भट्‌ट ‘कमल'
प्रकाशक : आत्मा राम एण्ड संस नई दिल्ली
प्रथम संस्करण:2006 , मूल्य: 80 रुपए (सजिल्द) पृष्ठ संख्या:47
प्रस्तुत लघु उपन्यास तुर्रम में श्री कमलेश भट्‌ट ‘कमल' ने बाल सुलभ मन के चित्र बहुत सहजता से उकेरे हैं। पढ़ते समय ऐसा लगा कि मेरा बचपन पुन: लौट आया है।बच्चे वास्तव में मन के सच्चे होते हैं। वे जिसे प्यार करते हैं पूरे मन से प्यार करते हैं। इस उपन्यास का मुख्य पात्र विनीत , तुर्रम नाम के मेंढक से बेहद प्यार करने लगता है। लेखक ने इसका सजीव चित्रण किया है कि बच्चा किस तरह धीरे धीरे तुर्रम से अपने को जोड़ता है। वह जब तक उसके क्रिया कलाप देख नहीं लेता तब तक उसे सुकून नहीं आता। लेखक ने बच्चे के लगाव एवं तुर्रम की हर गतिविधि का सूक्ष्म चित्रण किया है।
हर जीव को पालने के पीछे कुछ फायदे भी होते हैं। जैसे मेंढक मच्छर, कीड़े ,मकौडों को खा जाता है। इस प्रकार मच्छर वातावरण को कीड़े- मकौड़ों से रहित बनाता है। लेखक ने बहुत बारीकी से मेंढ़क की गतिविधियों का अवलोकन किया होगा तभी चित्रण में इतनी सहजता आ सकी है। इस उपन्यास को पढ़कर सबसे पहला विचार यही उभरता है कि हमें जीव -जन्तुओं से प्यार करना चाहिए। जीव -जन्तु किस प्रकार अपने आप को सुरक्षित रखकर स्वतंत्र जीवन जीते हैं। जीव- जन्तु किसी प्रतिबन्ध में रहना पसन्द नहीं करते। घर आने वाले प्रत्येक मेहमान को भी तुर्रम से परिचित कराया जाता है।
लेखक ने अन्त में भी बड़ा सुन्दर चित्रण किया है कि जीव -जन्तु भी अपने साथियों के साथ रहना पसन्द करते हैं न कि किसी प्रतिबन्ध में रहना।साज- सज्जा की दृष्टि से यह बाल उपन्यास उत्तम है। मूल्य अधिक है कुछ कम होता तो अच्छा होता।

दिवा स्वप्न : गिजू भाई बधेका ( हिन्दी में प्रथम संस्करण, मूल गुजराती में 1932 )
हिन्दी अनुवाद : काशिनाथ त्रिवेदी
प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया
मूल्य: 25 रुपए, पृष्ठ संख्या: 86
यह पुस्तक चार खण्डों में विभाजित है:-1 .प्रयोग का प्रारम्भ 2 .प्रयोग की प्रगति 3 .छह महीने के अन्त में 4 .अन्तिम सम्मेलन। लेखक ने लगभग 75 साल पहले जिस शिक्षण- कला के बारे में अपना चिन्तन एक शिक्षक की संघर्ष कथा के रूप में प्रस्तुत किया था. वह आज के शिक्षण की अनिवार्यता हो गई है। अध्यापक की उदासीन मानसिकता को बच्चे किस प्रकार सहन किया करते थे उसे लेखक ने महसूस किया है एवं उसका व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत किया है। लेखक परम्परागत शिक्षण के ढाँचे के पक्ष में नहीं है। वह उसमें आमूल -चूल परिवर्तन का हामी है। वह अनेक प्रयोग करता है। किस प्रकार खेल- खेल में शिक्षा दी जाए, कैसे कहानी के माध्यम से बच्चों के लेखन, श्रवण, वाचन आदि क्रिया- कलाप का विकास हो तथा बच्चों को पाठ्‌यक्रम के अलावा अन्य शिक्षण में निपुण किया जाए, कैसे उनकी उत्सुकता का निराकरण किया जाए।
अध्यापक लक्ष्मीशंकर ने बहुत ही साहस का कार्य किया;जबकि उस समय उनके साथी उनकी शिक्षण- कला का मज़ाक उड़ाया करते थे कि बच्चों को खेल खिलाकर कहानी सुनाकर बरबाद कर रहे हैं।इस सोच के पीछे उस समय ऐसी ही धारणा थी क्योंकि उस समय परम्परागत शिक्षण से हटकर नवीन विधि को लागू करने का जोखिम मोल लेने में असफल हो जाने का डर भी था। बच्चों को केवल डण्डे के बल पर पढ़ाया जा सकता है, यह गलत धारणा बनी हुई थी। ऐसे में लक्ष्मीशंकर का स्थान-स्थान पर अध्यापक साथियों ने खूब मज़ाक उड़ाया, लेकिन वे विचलित नहीं हुए। परिणाम उसी समय दिखाई देने लगे थे । डायरेक्टर साहब ने लक्ष्मीशंकर जी को खूब सहयोग दिया।
शिक्षक ने प्रत्येक विषय को क्रियाकलाप के माध्यम से पढ़ाया। मनोवैज्ञानिक ढंग से अध्ययन एवं विश्लेषण करके पता लगाया कि किस विद्यार्थी की किस कार्य में रुचि है। छात्र को केन्द्र में रखकर परीक्षा में आमूल चूल परिवर्तन किये। लेखक का मानना है कि कुछ बच्चों को पुरस्कृत करके कुण्ठा एवं अभिमान की भावना का ही प्रसार होता है। गिजू भाई की सुझाई गई नई प्रणाली आशाओं से भरे मधुर सपनों को साकार करती है। यह पुस्तक शिक्षक वर्ग के लिए एक उत्प्रेरक का काम करती है और नई से नई पद्वति के अपनाने पर बल देती है।
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