Monday, July 2, 2007

नीव का पत्थर – पहला अध्यापक

पहला अध्यापक – मूल लेखक चिंगिज ऐटमाटोव
अनुवाद – भीष्म साहनी
बुक ट्र्स्ट इण्डिया – मूल्य 25/– पृष्ठ संख्या 69

* ॠषि कुमार शर्मा
आज देश मे सर्वसाक्षरता अभियान पूरे जोर पर है । ऐसे समय मे आवश्यकता है कि भारत में भी कोई कोई ‘पहला अध्यापक ’ अवतरित होकर साक्षरता के क्षेत्र मे वही क्रांति लाए, जो कि लेनिन के मृत्यु से पहली दूइशेन मास्को के एक गॉव कुरकुरेव मे लाया था ।

नेशनल बुक ट्र्स्ट द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘ पहला अध्यापक ’मूल रूप मे ‘दूइशेन’ नामक रुसी पुस्तक है जिसका अनुवाद भीष्म साहनी ने किया है ।पुस्तक को पढ़ते समय पाठक के मानस पटल पर एक ऐसे जुनूनी,शिक्षा के प्रति दीवानगी तक समर्पित अध्यापक का चित्र उभरने लगता है :– दूइशेन द्वारा स्थापित विद्यालय की प्रथम छात्रा आल्तीनाई के शब्दों ‘‘क्या कोई सोच सकता है कि किस प्रकार एक अर्धशिक्षित युवक जो कि मुश्किल से अक्षर जोड़कर पढ़ पाता है, जिसके पास कोई पाठ्य–पुस्तक नही है, कैसे एक ऐसे काम को हाथ मे लेने का साहस कर पाया जो वास्तव मे एक महान था । ऐसे बच्चों को पढ़ाना क्या कोई मजाक है जिनकी पिछली सात पीढि़यों ने स्कूल तक न देखा हो । दूइशेन बच्चों को पढ़ाया करता था ,अपनी सूझ–बूझ एवं अन्त:प्रेरणा के बल से । शिक्षा के प्रति उसका जुनून तथा दीवानगी ने ही उससे एक बड़ा कारनामा कर दिखाया ।

अपने विद्यालय के बच्चों के प्रति उसके मातृत्व स्नेह का अंदाजा इन पंक्तियों से सहज ही लगाया जा सकता है:– ‘‘ सर्दी का मौसम आया,बर्फ़ पड़ने पर नाले को लॉघकर स्कूल जाना असह्य हो गया, ठण्ड के मारे छोटे बच्चों की तो आँखों में आँसू आ जाया करते थे, तब दूइशेन उन्हें खुद उठाकर नाला पार कराता । एक बच्चे को गोद मे उठाता तो दूसरे को पीठ पर बिठा लेता ।

अपने विद्यालय के बच्चों के प्रति वचनबद्धता का ऐसा उदाहरण शायद ही कहीं मिले जैसा कि दूइशेन के चरित्र मे मिलता है । “मैने बच्चों को वचन दिया था कि मै आज जरूर लौट आऊँगा’’ दूइशेन ने जवाब दिया – कल हमें जरुर पढ़ाई शुुरू कर देनी है । ‘ पगला कही का ’–करतनबाई उठकर बैठ गया और गुस्से के कारण जोर–जोर से सिर हिलाने लगा -”सुनती हो बुढि़या – देखती हो इसने उन बच्चों को, पिल्लों को वचन दे रखा था, भाड़ मे जाए सब, अगर आज तुम ही जिंदा न बचते ,भूल से भेडि़ए तुम्हें भी फाड़कर खा सकते थे । जरा सोचो, दिमाग से काम लो।
‘‘यह मेरा कर्त्तव्य, मेरा काम है दादा ।’’

अगर दूइशेन ऐटमाटोव की अमरकृति है तो भीष्म साहनी ने भी हिन्दी अनुवाद अत्यंत सूझबूझ एवं कहानी मे डूबकर किया है, अनुवाद मेँ साम्यवादी झलक स्पष्ट दिखाई देती है तथा आत्म कथ्यात्मक तत्व भी आसानी से देखे जा सकते है । प्रकृति तथा परिवेश के सजीव चित्रण तथा सैबाल चटर्जी के चित्रों ने पुस्तक को और अधिक रोचक बना दिया है ।

ख्यातिप्राप्त अकादमीशियन बन चुकी दूइशेन विद्यालय की प्रथम छात्रा आल्तीनाई सुलैमानोव्ना को विद्यालय के उदघाटन के लिए आमंत्रित किया जाता है । इस अवसर पर अपने अध्यापक के प्रति उसके भाव अत्यंत हृदयस्पर्शी एवं मार्मिक है :–

‘‘सम्मान का अधिकारी था हमारा पहला अध्यापक । हमारे गॉव का पहला कम्यूनिस्ट – बूढ़ा दूइशेन– मैं अपने आपसे पूछती हूँ कि कब से हमने सीधे–सादे इंसान का आदर करने की क्षमता खो दी है । क्यूँ हम ऐसे वक्त पर नींव के पत्थर कों भूलकर सिर्फ़ ध्वजा को ही नमन करते हैं ।’’

यह पुस्तक निश्चित रूप से भारत के ही नही अपितु विश्व के प्राथमिक शिक्षकों के चिंतन,मानसिकता एवं सोच को बदलने मे पूर्णत: सक्षम है । इस पुस्तक को पढ़कर कोई भी शिक्षक सृजनात्मक शिक्षा के लिए अपना सक्रिय योगदान प्रदान कर सकता हैं ।यह पुस्तक निश्चित रूप से विद्यालयों के पुस्तकालयों के लिए एक अनमोल निधि है । पहला अध्यापक को अगर शिक्षा की बाइबिल कही जाए तो अतिशयोक्ति न होगी ।

समीक्षक
ऋषि कुमार शर्मा
पुस्तकालयाध्यक्ष
केन्द्रीय विद्यालय आयुध उपस्कर निर्मा‍णी
हजरतपुर फिरोजाबाद – उत्तर प्रदेश –283103