Wednesday, June 20, 2007

नीति के दोहे:वृन्द कवि

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जैसो गुन दीनों दई ,तैसो रूप निबन्ध ।

ये दोनों कहँ पाइये ,सोनों और सुगन्ध ॥ 11

अपनी-अपनी गरज सब , बोलत करत निहोर ।

बिन गरजै बोले नहीं ,गिरवर हू को मोर ॥12

जैसे बंधन प्रेम कौ ,तैसो बन्ध न और ।

काठहिं भेदै कमल को ,छेद न निकलै भौंर ॥13

स्वारथ के सबहिं सगे ,बिन स्वारथ कोउ नाहिं ।

सेवै पंछी सरस तरु , निरस भए उड़ि जाहिं ॥ 14

मूढ़ तहाँ ही मानिये ,जहाँ न पंडित होय ।

दीपक को रवि के उदै , बात न पूछै कोय ॥ 15

बिन स्वारथ कैसे सहे , कोऊ करुवे बैन ।

लात खाय पुचकारिये ,होय दुधारू धैन ॥16

होय बुराई तें बुरो , यह कीनों करतार ।

खाड़ खनैगो और को , ताको कूप तयार ॥17

जाको जहाँ स्वारथ सधै ,सोई ताहि सुहात ।

चोर न प्यारी चाँदनी ,जैसे कारी रात ॥18

अति सरल न हूजियो ,देखो ज्यौं बनराय .

सीधे-सीधे छेदिये , बाँको तरु बच जाय ॥19

कन –कन जोरै मन जुरै ,काढ़ै निबरै सोय ।

बूँद –बूँद ज्यों घट भरै ,टपकत रीतै तोय ॥ 20

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कारज धीरे होत है ,काहे होत अधीर ।
समय पाय तरुवर फरै ,केतिक सींचौ नीर ॥21

उद्यम कबहूँ न छाड़िये , पर आसा के मोद ।
गागर कैसे फोरिये ,उनयो देकै पयोद ॥22

क्यों कीजे ऐसो जतन ,जाते काज न होय ।
परबत पर खोदै कुआँ , कैसे निकरै तोय ॥ 23

हितहू भलो न नीच को ,नाहिंन भलो अहेत ।
चाट अपावन तन करै ,काट स्वान दुख देत ॥24

चतुर सभा में कूर नर ,सोभा पावत नाहिं ।
जैसे बक सोहत नहीं ,हंस मंडली माहिं ॥25

हीन अकेलो ही भलो , मिले भले नहिं दोय ।
जैसे पावक पवन मिलि ,बिफरै हाथ न होय ॥26

फल बिचार कारज करौ ,करहु न व्यर्थ अमेल ।
तिल ज्यौं बारू पेरिये,नाहीं निकसै तेल ॥ 27

ताको अरि का करि सकै ,जाकौ जतन उपाय ।
जरै न ताती रेत सों ,जाके पनहीं पाय ॥ 28

हिये दुष्ट के बदन तैं , मधुर न निकसै बात ।
जैसे करुई बेल के ,को मीठे फल खात ॥29

ताही को करिये जतन ,रहिये जिहि आधार ।
को काटै ता डार को ,बैठै जाही डार ॥30
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गुन-सनेह-जुत होत है , ताही की छबि होत ।
गुन-सनेह के दीप की ,जैसे जोति उदोत ॥31

ऊँचे पद को पाय लघु ,होत तुरत ही पात ।
घन तें गिरि पर गिरत जल ,गिरिहूँ ते ढरि जात ॥32

आए आदर न करै ,पीछे लेत मनाय ।
घर आए पूजै न अहि ,बाँबी पूजन जाय ॥33

उत्तम विद्या लीजिए ,जदपि नीच पै होय ।
पर्यौ अपावन ठौर को कंचन तजत न कोय ॥34

दुष्ट न छाड़ै दुष्टता ,बड़ी ठौरहूँ पाय ।
जैसे तजै न स्यामता ,विष शिव कण्ठ बसाय ॥35

बड़े-बड़े को बिपति तैं ,निहचै लेत उबारि ।
ज्यों हाथी को कीच सों ,हाथी लेत निकारि ॥36

दुष्ट रहै जा ठौर पर ,ताको करै बिगार ।
आगि जहाँ ही राखिये ,जारि करैं तिहिं छार ॥37

ओछे नर के चित्त में ,प्रेम न पूर्यो जाय ।
जैसे सागर को सलिल ,गागर में न समाय ॥38

जाकौ बुधि-बल होत है ,ताहि न रिपु को त्रास ।
घन –बूँदें कह करि सके ,सिर पर छतना जास ॥39

सरसुति के भंडार की ,बड़ी अपूरब बात ।
जौं खरचे त्यों-त्यों बढ़ै , बिन खरचै घट जात ॥40
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